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________________ १७८ १. औदयिक भाव सत्ता (अबाधाकाल) को छोड़कर उदीरणावलिका का अतिक्रमण कर उदयावलिका में कर्मदलिक का विपाक होना उदय कहलाता है । उदय से होने वाला पर्याय औदयिक भाव है । संसारी जीव के कर्म का उदय निरंतर होता रहता है। २. औपशमिक भाव आत्मा का वह पर्याय जिसमें विपाकोदय और प्रदेशोदय का सर्वथा अभाव होता है उसका नाम है उपशम । क्षयोपशम के प्रकरण में उपशम का जो अर्थ है यह उससे भिन्न है । क्षयोपशम के काल में क्षय और प्रदेशोदय अथवा मंद विपाकोदय चलता रहता है । उपशम भाव में मोहनीय कर्म न तो क्षय होता है न उदय । इसलिए औपशमिक भाव के प्रकरण में उपशम का अर्थ क्षायोपशमिक भाव के उपशम से भिन्न है ।" पूर्ण उपशम केवल मोहनीय कर्म का होता है। इसका हेतु यह है कि मोहनीय कर्म की प्रकृतियां संवेगात्मक और विकारक हैं इसलिए उनका उपशम किया जा सकता है। ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्म की प्रकृतियां आवारक और अन्तराय कर्म की प्रकृतियां प्रत्युत्पन्न विनाशी और आगामी प्रतिरोधक हैं इसलिए उनका उपशमन नहीं होता । अघाति कर्म का उपशम नहीं होता । जैसे वेदनीय कर्म सात या असात के रूप में निरन्तर भोगा जाता है । आयुष्य कर्म भी निरंतर भोगा जाता है । उपशम की तुलना मनोविज्ञान के Supression से की जा सकती है। आयुर्वेद में दो प्रकार के बेग बतलाए गए हैं शारीरिक वेग और मानसिक वेग । मानसिक वेग रोकना आवश्यक है। शारीरिक वेग नहीं रोकना चाहिए। ३. क्षायिक भाव कर्म के क्षय से होने वाला जीव का पर्याय क्षायिक भाव कहलाता है । ४. क्षायोपशमिक भाव इसमें क्षय और उपशम दो पदों का योग है । उदीर्ण दलिक का क्षय होता रहता है । बन्धावलिका में आने योग्य नहीं है, उन अनुदीर्ण दलिकों का उपशम होता रहता है। यह क्षय और उपशम की प्रक्रिया निरंतर चलती है। क्षयोपशम के साथ जो उपशम पद है उसके दो रूप बनते हैं १. उदयावलिका में आने योग्य कर्मदलिकों को विपाकोदय के अयोग्य बना देना । २. तीव्र रस का मंद रस में परिणमन | क्षयोपशम पातिकर्म (ज्ञानावरणीय कर्म, दर्शनावरणीय कर्म, मोहनीय कर्म और अन्तराय कर्म) का ही होता है। घातिकर्म की प्रकृतियां दो प्रकार की होती हैं १. सर्व घाति अणुओदाराई इसका तात्पर्य है कि क्षयोपशम की प्रक्रिया में उदयावलिका प्राप्त अथवा विद्यमान विवक्षित वर्तमान समय से आवलिका पर्यन्त जो दलिक उदय में १. (क) अचू. पू. ४२ अविहरूमा पोयला संतायत्यात उदीरणावलियमतिक्रान्ता अप्पणी विपागेण उदयावलियाए वट्टमाणा उदिन्नाओत्ति उदयभावो भन्नति । Jain Education International २. देश घाति केवलज्ञानावरण, केवलदर्शनावरण, पांच निद्रा' बारह कषाय और मिथ्यात्व ये प्रकृतियां सर्वघातिनी हैं। चार ज्ञानावरण" (ख) अहावृ. पृ. ६१ । २. (क) अहावू. पू. ६३, ६४ : इह चोदीर्णस्य क्षय: अनुदीर्णस्य च विपाकमधिकृत्योपशम इति गृह्यते, आह औपशमिकोष्येवंभूत एव न तत्रोपशमितस्य प्रदेशानुभवतोऽप्यवेदनावरच वेदनादिति । (ख) अमवृ. प. १०९, ११० । ३. असू. ४।२४ : धारयेत्तु सदा वेगान् हितैषी प्रेत्य चेह च । लोनेयमात्सर्य रागादीनां जितेन्द्रियः ॥ ४. वही, ४११ : वेगान् धारयेद्वातविम्वद्धाम् । कासथमश्वासाच्यविरेतसाम् ॥ ५. क ५, गा. १३, १४ : केवलजुयलावरणा पणनिद्दा बारसाइमकसाया । मिच्छं ति सव्वधाई चउणाणतिदंसणावरणा ॥ संजलण नोकसाया विग्धं इय देसघाइय अघाइ । ६. निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानद्ध । ७. अनन्तानुबन्धी- क्रोध, मान, माया, लोभ । अप्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ । प्रत्याख्यानावरण- क्रोध, मान, माया, लोभ । श्रुतज्ञानावरण, ८. मतिज्ञानावरण, केवलज्ञानावरण | For Private & Personal Use Only अवधिज्ञानावरण, www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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