________________
प्र०७, सू० २७१-२८७, टि० १५
१७९
तीन दर्शनावरण' संज्वलन क्रोध, मान, माया और लोभ, नव नोकषाय और पांच अन्तराय, ये प्रकृतियां देशघातिनी है।
इनके आधार पर क्षयोपशम के भी दो प्रकार बन जाते हैं१. देशघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम २. सर्वघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम
देशघाति कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम काल में संबद्ध प्रकृति का मंद विपाकोदय रहता है। मंद विपाक अपने आवार्य गुण के विकास को रोक नहीं सकता । इस अवस्था में सर्वघाति रसवाला कोई भी दलिक उदय में नहीं रहता।
सर्वघाति कर्मप्रकृतियों के क्षयोपशम काल में विपाकोदय सर्वथा नहीं रहता, केवल प्रदेशोदय रहता है। केवलज्ञानावरण व केवलदर्शनावरण इन दो सर्वघाति कर्मप्रकृतियों का क्षयोपशम नहीं होता।
शुभ अध्यवसाय, शुभ लेश्या और शुभयोग के द्वारा कर्म प्रकृतियों के तीव्र विपाकोदय को मंद विपाकोदय और विपाकोदय को प्रदेशोदय में बदलने की प्रक्रिया चालू रहती है । औदयिक भाव और क्षायोपशमिक भाव का संघर्ष निरंतर चलता है।
क्षयोपशम केवल घातिकर्म का ही होता है अघाति कर्म का नहीं। अघाति कर्म-- वेदनीयकर्म, नामकर्म, गोत्रकर्म और आयुष्य कर्म आत्मा के गुणों का घात करने वाले नहीं हैं। आवारक, विकारक और अवरोधक नहीं है। आत्मा के चार मौलिक गुण है-ज्ञान, दर्शन, आनन्द और शक्ति । घाति कर्म इन गुणों का घात करते हैं किन्तु वे सर्वथा घात नहीं करते इसलिए उनका क्षयोपशम होता रहता है । अघाति कर्म का केवल उदय होता है। यदि शुभ कर्म का उदय होता है तो शुभ पुद्गलों का संयोग मिलता है । यदि अशुभ कर्म का उदय होता है तो अशुभ पुद्गलों का संयोग मिलता है। इस औदयिक भाव की प्रक्रिया में क्षयोपशम के लिए कोई अवकाश नहीं है। ५. पारिणामिक भाव
प्रतिक्षण परिणमन होना द्रव्य का स्वभाव है। परिणाम का अर्थ है नए-नए पर्यायों में जाना। वह स्वाभाविक और प्रयोगजनित दोनों प्रकार का होता है । परिणाम ही पारिणामिक भाव है।
परिणाम शब्द से इकण प्रत्यय स्वार्थ और निष्पत्ति इन दोनों अर्थों में होता है। इसके अनुसार परिणाम और परिणाम से निष्पन्न-दोनों पारिणामिक कहलाता है। इस आधार पर पारिणामिक का अर्थ है-परिणाम से निष्पन्न होने वाला। ६. सान्निपातिक भाव
अनेक भावों के सन्निपात–संयोग से होने वाला भाव सान्निपातिक भाव कहलाता है। उदाहरण के लिए द्रष्टव्य २८९-२९७ ।
शब्द विमर्श
सूत्र २७४
उदयनिष्पन्न-जो उदय में आकर किसी अन्य पर्याय को जन्म देता है वह औदयिक भाव उदयनिष्पन्न कहलाता है।'
जीवोदयनिष्पन्न - जीव में कर्म के उदय अथवा कर्मविपाक से निष्पन्न पर्याय। हरिभद्रसूरि ने मतान्तर का उल्लेख किया है । उनके अनुसार जीव और कर्म के उदय से होने वाला पर्याय जीवोदयनिष्पन्न कहलाता है।'
अजीवोदयनिष्यन्न-जीव में पुद्गल के योग से होने वाला कर्म का वह उदय, जो प्रधानरूप से पौद्गलिक पर्याय निष्पन्न करता है।
जीवोदयनिष्पन्न और अजीवोदयनिष्पन्न दोनों भाव जीव से संबद्ध है। प्रथम में जीव का प्राधान्य दूसरे में अजीव का प्राधान्य विवक्षित है।
१. चक्षुदर्शनावरण, अचक्षुदर्शनावरण और अवधिदर्शना
वरण। २. हास्य, रति, अरति, भय, शोक जगप्सा, तीन वेद (स्त्री
वेद, पुरुषवेद, नपुंसकवेद)। ३. अच, पृ. ४२ : उबयमिफण्णो णाम उदिण्णेण जेण अण्णो निष्फावितो सो उदयणिफण्णो।
४. अहाव. पृ. ६१ : अन्ये तु जीवोदयाभ्यां निष्फण्णो जीवोदयनिष्पन्न इति व्याचक्षते, इदमप्यदुष्टमेव, परमार्थतः
समुदायकार्यत्वात् । ५. अहावृ. पृ. ६१,६२ : इह च वस्तुतः द्वयोरपि द्रव्यात्मकत्वे
एकत्र जीवप्राधान्यमन्यत्राजीवप्राधान्यमाश्रीयत इति, ततश्चोपपन्नमेव जीवोदयनिष्पन्नं अजीवोदयनिष्पन्नम् ।
Jain Education Interational
www.jainelibrary.org
For Private & Personal Use Only