________________
१८०
अणुओगदाराई
सूत्र २७५ छद्मस्थ-छद्म का अर्थ है आवरण । जो ज्ञान की आवृत्त अवस्था में होता है वह छद्मस्थ कहलाता है। अकेवली केवल ज्ञान से रहित ।
छद्मस्थ दशा ज्ञान के आवरण की सूचक है और अकेवली दशा ज्ञान के तारतम्य की सूचक है। केवलज्ञान उत्पन्न होने के बाद ज्ञान का तारतम्य समाप्त हो जाता है।
संसारस्थ-जो संसार (जन्ममरण का चक्र) में स्थित है। असिद्ध-जो सिद्ध नहीं हुआ है।
असिद्ध शब्द अवस्था विशेष का सूचक है । मुक्त जीव शरीर का त्याग इस मनुष्य लोक में करता है वह सिद्ध लोकाकाश के छोर पर जाकर होता है।
जो आत्मा को विभु-सर्वव्यापी मानते हैं उनके अनुसार मुक्त होने पर भी आत्मा की गति नहीं होती । ईश्वरवादी दर्शन में मुक्त होने के पश्चात् आत्मा का ईश्वर में विलय हो जाता है, उन्हें गति का सिद्धान्त मान्य नहीं है । बौद्ध दर्शन में निर्वाण के पश्चात् गति अथवा स्थान विशेष दोनों को अस्वीकार किया गया है।
जैन दर्शन आत्मा को देह परिमाण मानता है। मुक्त आत्मा की अवस्थिति लोकाग्र पर मानता है अतः गति और स्थान दोनों सिद्धान्त उन्हें मान्य हैं।
सूत्र २७६ प्रयोगपरिणामित द्रव्य-शरीर की रचना प्रारम्भ में पर्याप्ति निर्माण के समय हो जाती है। फिर वह शरीर पुद्गल द्रव्य के वर्ण, गंध आदि का ग्रहण करता रहता है। जिस शरीर के प्रयोग से वर्ण, गंध आदि का ग्रहण तथा सात्मीकरण होता है वह उस शरीर के द्वारा परिणामित द्रव्य कहलाता है ।
सूत्र २८२ उत्पन्नज्ञानदर्शनधर-आत्मा ज्ञान स्वरूप है। ज्ञानावरणीय कर्म का क्षय होने पर ज्ञान अनावृत हो जाता है। वह किसी ग्रन्थ या शास्त्र से प्राप्त नहीं होता। इस अवस्था का वाचक शब्द है- उत्पन्नज्ञानदर्शन। इसे धारण करने वाला उत्पन्नज्ञानदर्शनधर कहलाता है।
अर्हत्-ज्ञानदर्शन के उत्पन्न होने पर कोई रहस्य नहीं रहता इसलिए वह अर्हत् कहलाता है।'
जिन-णिकार ने जिन का अर्थ कर्मशत्रु-विजेता किया है।' हरिभद्रसूरि ने इसका अर्थ राग आदि का विजेता किया है।" हेमचन्द्र ने इसका अर्थ आवरण -शत्रु का विजेता किया है।' वीतराग रागद्वेष का विजेता होता है। केवली के लिए यह विशेषण कोई विशेष अर्थ नहीं देता। इसका आशय आचारांग के 'अभिभूयअदक्खु' और सूयगडो के 'अभिभूयनाणी' के संदर्भ में समझा जा सकता है। सूत्रकृतांग चूणि में 'अभिभूयनाणी' का अर्थ किया गया है-चार ज्ञान और तीन दर्शनों का अभिभव कर जो दर्शन और ज्ञान अकेला ही प्रकाश करता है वह केवलदर्शन और केवलज्ञान होता है। जिन शब्द इस अवस्था का सूचक है।
केवली-प्रारम्भ में ज्ञान अपूर्ण और अनेक भागों में विभक्त रहता है। ज्ञानावरण क्षीण होने पर वह परिपूर्ण और एक हो जाता है । केवली शब्द इस अविभक्त अवस्था का सूचक है।
अनावरण-आवरणमुक्त-जैसे निर्मल आकाश में चन्द्र का बिम्ब ।'
१. उ. ३६०५६ :
___इह बोंदि चइत्ताणं तत्थ गंतूण सिज्मइ । २. सौ. १६१८:
दीपो यथा नितिमभ्युपेतो नवानि गच्छति नान्तरिक्षाम् । दिशं न काञ्चिद् विदिशं न काञ्चित् स्नेहायात्
केवलमेति शान्तिम् ।। ३. अचू. पृ. ४३ : जस्स न रहो संभवति अरहा। ४. अचू. पृ. ४३ : कम्मारिजित्तणातो जिणो।
५. अहाव. पृ. ६२ : रागाविजेतृत्वाज्जिनः । ६. अमवृ. प. १०७। ७. सू. १।६।५ का टिप्पण। ८. (क) अचू. पृ. ४३ : अणावरणे पड़प्पन्नकालणयवेक्खत्तणओ
विसुद्धांबरे चन्द्रबिम्बवत् । (ख) अहावृ. प. ६२ : अनावरणः --- अविद्यमानावरणः
सामान्येनावरणरहितत्वात् । (ग) अमवृ. प. १०७।
Jain Education Intemational
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org