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प्र० ७, सू० २७१-२८७ टि० १५
निरावरण - आगन्तुक आवरण रहित - जैसे राहुग्रास से मुक्त चन्द्रबिम्ब ।
क्षीणावरण -- जिसका आवरण क्षीण हो चुका है। आवरण का पुनर्भाव नहीं होता। जैसे स्वच्छ किया हुआ
जात्यमणि ।
अवेदन - वेदना रहित ।
निवेदन - बाहर से आने वाले वेदना के हेतुओं से अप्रभावित ।
क्षीणवेदन - भविष्य में आने वाली बेदना की संभावना से मुक्त ।
प्रस्तुत सूत्र में कर्म के क्षय से होने वाले भावों का तथा क्षयजनित अवस्थाओं का उपदर्शन किया गया है ।
सूत्र २८५
सम्यग्दर्शनलब्धि – सम्यक्त्व, सम्यग्दर्शन, रुचि और श्रद्धा इन चारों का एकार्थक पद के रूप में प्रयोग किया जाता है किन्तु समभिरूढ नय की दृष्टि से विचार करने पर चारों के अर्थ भिन्न है । रुचि का अर्थ है प्रीति । श्रद्धा का अर्थ है - मानसिक अभिलाषा । उमास्वाति ने सम्यग्दर्शन का अर्थ तस्व श्रद्धान किया है।* सम्यक्त्व का अर्थ है दर्शन सप्तक (अनन्तानुबन्धी चतुष्क, मिथ्यात्व मोहनीय, सम्यक्त्व मोहनीय और मिश्रमोहनीय) के क्षय, क्षयोपशम व उपशम से होने वाला विकास ।
हरिभद्रसूरि ने सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व का कारण बताया है ।" धर्मप्रकरण में तत्त्वार्थ श्रद्धान को सम्यक्त्व का कार्य बताया गया है। ये दोनों कथन परस्पर सापेक्ष है । सम्यग्दर्शन से सम्यक्त्व तक पहुंचा जा सकता है इसलिए सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व का कारण भी माना जा सकता है। सम्यक्त्व होने पर सहज ही सम्यग्दर्शन होता है इसलिए सम्यग्दर्शन को सम्यक्त्व का कार्य भी माना जा सकता है ।
क्षायोपशमिक आचारधर - आचारांगसूत्र के सूत्र और अर्थ का अध्येता, धारक अथवा विशेषज्ञ मुनि आयारधर कहलाता है । इसी प्रकार शेष आगम ग्रन्थ को धारण करने वाले मुनि होते थे । भगवान् महावीर के कुछ शिष्य आचारांगधर थे । कुछ सूत्र - कृतांङ्गधर थे । यह वर्णन औपपातिक में मिलता है ।"
क्षायोपशमिक गणि गणी और वाचक ये पद अहंता सापेक्ष हैं। गणी में छेद सूत्रों के अध्ययन की विशिष्टता होती है और वाचक आगम परम्परा के अध्यापन के संवाहक होते हैं। अध्ययन और अध्यापन इनका मुख्य कार्य होता है । इसलिए इन्हें क्षायोपशमिक भाव के उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
व
पुरानी शराब, पुराना गुड़ - परिणमन नए में सहजता से समझा जा सकता है। इस दृष्टि से उदाहरण के रूप में जीर्ण सुरा, जीर्ण गुड़ आदि का प्रयोग किया गया है ।
निर्घात गर्जारव युक्त विद्युत का कौंधना ।"
यूपक – सन्ध्या की प्रभा और चन्द्रमा की प्रभा का मिश्रण यक्षादीप्त- आकाश में कभी-कभी होने वाला विद्युत् के आकाश में व्यंतरकृत अग्नि-दीपन । "
धूमिका रूक्ष, विरल और धूम जैसी आभावाला कुहासा १. (क) अचू. पृ. ४३ : आवरणातो वा णिग्गयं जस्स स निरावरणो सस्सिबिब व राहुतो ।
(ख) अहावृ. पृ. ६२ ।
(ग) अमवृ. प. १०७ ।
२. (क) अचू. पू. ४३ : खोणावरणेत्ति खीणं खवियं विगट्ठ विद्धत्यं सव्वहा अभावे य आवरणं जस्सेवं तमो व
रविणो जहा उदयतो ।
(ख) पू. ६२।
(ग) अमवृ. प. १०७ । ३. उ. २८।१६ । तसू. १।२ ।
४.
सूत्र २८७
जीर्ण में सब में होता रहता है। नए की अपेक्षा जीर्ण का परिवर्तन
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। चूर्णिकार ने इसे अमोघा कहा है ।"
समान प्रकाश, आकाश में दिखाई देने वाला अग्निपिशाच या
יין
५. अहावू. पू. ६३ : सम्यक्त्वकारणं सम्यग्दर्शनम् । ६. धर्म. २ ।
७.
उसुओ. ४५ ।
८. अचु. पृ. ४४ : निनादोपलक्षितो घात इव निर्घातः ।
मोहो
९. अ. पू. ४४ जूनी
१०. अचू. पृ. ४४: जक्खालित्ता- अग्निपिसाचा ।
११. (क) अचू. पृ. ४४ धूमिका रूक्षा प्रविरला सा
धूमाभा ।
(ख) अहावृ. पु. ६४ ।
(ग) अमवृ. प. १११ ।
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