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________________ प्र० २, सू० ४० ४६, टि० १-१३ ७. कृमिराग ( किमिरागे) कृमिराग अर्थात् कुमचिया रंग का सूत्र । इस सूत्र - निर्माण की प्रक्रिया में बताया गया कि मनुष्य का रक्त निकालकर उसमें कोई रासायनिक पदार्थ मिलाकर एक पात्र में रख दिया जाता है। उस रक्त में कृमि उत्पन्न होकर वे हवा की खोज में पात्र के छेदों से बाहर निकलते हैं। आस-पास घूमते समय उनके मुख से लार टपकती है। उससे सूत्र बन जाता है । कुछ लोग मानते हैं कि कृमि सहित उस शोणित को मला जाता है। उनके खोलों को निकालकर उस रस में कुछ पदार्थ मिलाकर पट्टसूत्र को रंगा जाता है, वही कृमिराग सूत्र है । वह रंग इतना पक्का होता है कि वस्त्र को धोने के बाद भी नहीं छूटता | सूत्र ४४ ८. मृगरोम का सूत (मियलोमिए) मृग की आकृति वाले बड़ी पूंछ वाले आठविक जीवों के रोमों से निष्पन्न सूत्र को मृगरोम कहा जाता है।' 1 ६. चूहे के रोमों का सूत (कुतबं) चूहे के रोम से बना हुआ सूत कौतव कहलाता है । " १०. मिश्रित बालों से बना सूत ( किट्टिसे) ऊन, मृगरोम आदि का सूत बनाने के बाद जो कचरा बचता है, उससे निर्मित सूत किट्टिस कहलाता है । इसका दूसरा अर्थ यह है ऊन, ऊंट के रोम, मृगरोम और चूहों के रोम - इनमें से दो-तीन के मिश्रण से जो सूत बनता है, वह किट्टिस कहलाता है।" ११. बुद्धि (बुद्धि) व्यवसायात्मक या निर्णयात्मक ज्ञान । १२. मति (इ) सूत्र ४९ मननात्मक और स्मरणात्मक ज्ञान । १३. मंत्री और आसुरोक्त (हंमीमासुर) इस वाक्य में दो ग्रन्थों का उल्लेख है । व्यवहारभाष्य की मलयगिरीया वृत्ति के अनुसार हंभी का संस्कृत रूप भंभी होता है । गोम्मटसार में आभी (आभीत) का उल्लेख मिलता है। ललितविस्तर में आम्भिर्य पद का प्रयोग है। इस प्रकार एक ही ग्रन्थ के लिए अनेक परिवर्तित पाठ मिलते हैं। इसका परिचय प्राप्त नहीं है । गोम्मटसार की व्याख्या में इसे चौर्यशास्त्र बतलाया गया है । १. ( क ) अचू. पृ. १५ : मणुयादिरुहिरं घेतुं किणावि जोगेण जुत्तं भायणसं पुडंमितविज्जति, तत्थ किमी उप्पज्जंति, ते वाताभिलासिणो छिद्दनिग्गता इतो ततो य आसणं मंति, सिमीहारनाता किमिरागपट्टमति, सो सपरिणामं रंगरंगितो चेव भवति । अण्णे भांतिजहा रुहिरे उप्पन्ना किमितो तत्थेव मलेत्ता कोसट्ट उत्तारेत्ता तत्थ रसे किंपि जोगं पक्खिवित्ता वत्थं रयंति सो किमिरागो भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. २१,२२ ॥ २.अ.प.३१च्च धौताद्यवस्थासु मनागपि कंपचिद रागंन मुंचति । ३. (क) अचू. पृ. १५ मिहितो लहुतरा मृगाकृतयो बृहत्पिच्छा तेसि लोमा मियलोमा । Jain Education International (ख) अहावृ. पृ. २२ । (ग) अमवृ. प. ३२ । ४. (क) अजू. पू. १५ कृतयो उदररोगे । (ख) अहावृ. पृ. २२ । (ग) अमृवृ. प. ३२ । ५५ ५. (क) अचू. पृ. १५ : उण्णितादीणं अवघाडो किट्टिसमहवा एतेसि दुगादिसंयोगजं किट्टिसं, अहवा जे अण्णे साणगा (छगणा) दयो रोमा ते सव्वे किट्टिसं भन्नति । (ख) अहावृ. पृ. २२ । (ग) अमवृ. प. ३२ । ६. व्यभा. ३, प. १३२ । ७. गोजी. ३०३ । ८. नसुअ. ४९ का पादटिप्पण । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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