SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 383
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३४६ परसमय वक्तव्यता - पुद्गलवाद । स्वपरसमय वक्तव्यता - आत्मपुद्गलवाद । २. (सूत्र ६०६ ) संख्या के प्रकरण में नैगम, संग्रह और व्यवहार तीनों नयों का उल्लेख है।' हेमचन्द्र ने तीनों की व्याख्या की है। हरिभद्र ने केवल नैगम और व्यवहार की व्याख्या की है। प्रस्तुत सूत्र में नैगम और व्यवहार दो नयों का उल्लेख है । हरिभद्र ने नैगम और व्यवहार का उल्लेख किया है।" संग्रहनय सामान्यग्राही नैगम के अन्तर्गत विवक्षित है इस अपेक्षा से उसका उल्लेख नहीं किया गया है। - यह हेमचन्द्र का मत है । " सूत्र ६०९ ऋजुसूत्र वर्तमान पर्याय का ग्राहक है। इसे प्रथम दो वक्तव्यता इष्ट है। वर्तमान क्षण में केवल स्वसमय का प्रतिपादन होगा या केवल परसमय का । उभयसमय वक्तव्यता के प्रसंग में स्वसमय सम्बन्धी बातें प्रथम भेद में आ जाती हैं और परसमय सम्बन्धी द्वितीय भेद में । इसलिए वक्तव्यता तीन प्रकार की नहीं होती । तीन शब्द नय ( शब्द, समभिरूढ व एवंभूत) विशुद्धतर हैं। ये केवल स्वसमय वक्तव्यता को स्वीकार करते हैं। परसमय की अस्वीकृति में उपस्थित किये गए हेतु ये हैं १. अनर्थ - स्वसमय के अनुसार आत्मा (अस्तित्वधर्मा) है। "आत्मा नहीं है" यह प्रतिपादित करने के कारण परसमय अनर्थ है। २. अहेतु - आत्मा के अस्तित्व का प्रतिषेध करने के लिये हेतु दिया जाता है। 'अत्यन्तानुपलब्धेः' यह हेतु नहीं हेत्वाभास है । आत्मा का गुण है ज्ञान । ज्ञान प्रत्यक्ष है अतः आत्मा का नास्तित्व प्रमाणित करने वाला हेतु अहेतु है । ३. असद्भाव - जो सद्भूत अर्थ को अस्वीकार करता है। ४. अक्रिया - जो दर्शन एकान्त शून्यता का प्रतिपादक होने के कारण क्रिया करने वाले का प्रतिषेधक है । क्रिया करने वाले के अभाव में क्रिया की संगति भी नहीं हो सकती । ५. उन्मार्ग जो परस्पर विरोधी तथ्यों का प्रतिपादन करता है । ६. अनुपदेश -- सर्व क्षणिकवादी प्रत्येक पदार्थ को क्षणक्षयी मानते हैं। प्रथम क्षण जो आत्मा है, वह दूसरे क्षण में विनष्ट हो जाता है। ऐसी स्थिति में कौन किसे उपदेश दे सकता है ? ७. मिथ्यादर्शन - मिथ्या दृष्टिकोण | ४ ( सूत्र ६११-६१४ ) एकान्तवादी दर्शन दुर्नय हैं। इसलिए शब्द नय इन्हें स्वीकार नहीं करता । एकान्त आग्रह टूटने की स्थिति में वे स्याद् पद की सापेक्षता में स्वसमय वक्तव्यता के अन्तर्गत आ जाते हैं । निष्कर्ष की भाषा में आवश्यक का प्रकरण चल रहा है। वह स्वसमय वक्तव्यता है । कुप्रावचनिक आवश्यक परसमय वक्तव्यता है । सूत्र - ६१० ३. ( सूत्र ६१० ) अध्ययन के अधिकार का क्षेत्र व्यापक है । वक्तव्यता का क्षेत्र सीमित है । अर्थाधिकार आदि पद से लेकर अन्तिम पद तक अनुवृत्त होता है । वक्तव्यता एक विषय के साथ सम्पन्न हो जाती है । सूत्र ६११-६१४ अनुभोगदाराई समवतार का अर्थ है अन्तर्भाव । समवतार के तीन प्रकार हैं १. नसुअ. ५६८ । २. अमवृ. प. २१४ । ३. अहाव. पृ. १०९ । Jain Education International ४. वही, पृ. ११७ ॥ ५. अमवृ. प. २२५ । ६. अहावृ. पृ. ११८ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy