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________________ १. ( सूत्र ६०५ - ६०८ ) टिप्पण एक विषय की प्ररूपणा, प्रतिनियत अर्थ का प्रतिपादन वक्तव्यता कहलाती है ।" १. स्वसमय वक्तव्यता अपने सिद्धान्त का प्रतिपादन करना स्वसमय वक्तव्यता है, जैसे—अस्तिकाय पांच हैं-धर्मास्तिकाय, अधर्मास्तिकाय आदि । धर्मास्तिकाय गति सहायक द्रव्य है । यह असंख्य प्रदेशात्मक अखण्ड तत्त्व है । ' सूत्र ६०५-६०८ २. परसमय वक्तव्यता — अन्य तीर्थिकों के सिद्धान्त का प्रतिपादन परसमय वक्तव्यता है । जैसे संत पंचमहभूषा, इहमेगेसि आहिया ३. उभयसमय वक्तव्यता -- अपने तथा अन्यतीर्थिक दोनों के सिद्धान्त का प्रतिपादन करना उभयसमय वक्तव्यता है, जैसेअगारमावसंता वि, आरण्णा वा वि पव्वया । इमं दरिगमावण्णा सवदुनया विमुच्यति ॥ " कोई व्यक्ति गृहस्थ हो, तापस हो अथवा प्रव्रजित शाक्य आदि हो, हमारे दर्शन का आश्रय लेकर वह सब दुःखों से मुक्त हो जाता है । सांख्य दर्शन को मानने वाले व्यक्तियों द्वारा यह प्रतिपादन परसमय वक्तव्यता है और जैनों द्वारा यह प्रतिपादन स्वसमय वक्तव्यता है । इसलिए इसमें उभयसमय वक्तव्यता है। आत्मा एक है-इसे एक उदाहरण के रूप में लें - परसमय की दृष्टि से इसकी व्याख्या करने वाले कहते हैं-आत्मा एक है एक एव हि भूतात्मा भूते भूते व्यवस्थितः । एकधा बहुधा चैव दृश्यते जलचन्द्रवत् ॥ , एक ही आत्मा प्रत्येक प्राणी में प्रतिष्ठित है। वह एक होने पर भी अनेक रूप में जानी जाती है । जैसे- चन्द्रमा एक है । जल से भरे हुए अनेक पात्रों में उसके स्वतन्त्र अस्तित्व की प्रतीति होती है, वैसे ही आत्मा एक होने पर भी अनेक रूपों में दिखाई देता है । स्वसमय की दृष्टि से इसका विवेचन होगा - सब जीवों में शुद्धोपयोग रूप लक्षण समान है । 'उपयोगलक्षणो जीवः' जीव का लक्षण उपयोग है। उपयोग सब जीवो में है इस सारूप्य की दृष्टि आत्मतत्त्व एक है । उभयसमय वक्तव्यता का यह प्रसंग तुलनात्मक अध्ययन ( Comparative study) का संकेत देता है । दिगम्बर साहित्य में 'समय' शब्द आत्मा के अर्थ में प्रयुक्त होता है। इस अर्थ के स्वसमय वक्तव्यता- आत्मवाद । (ख) अहावृ. पृ. ११७ । Jain Education International १. (क) अचू. पू. ८५ अज्झयणाइसु सुतपगारेण सुत्तविभागेण वा इच्छा परूविज्जंति सा वत्तव्वया भवति । (ख) अहावू. पृ. ११७ । (ग) अमवू. पृ. २२५ । २. (क) अचू. पृ. ८५ : जत्थ पंति यत्राध्ययने सूत्रे धर्मास्ति कायद्रव्यादीनां आत्मसमयस्वरूपेण प्ररूपणा क्रियते यथा गतिलक्षणो धर्मास्तिकायेत्यादि सा स्वसमयवक्तव्यता । अनुसार (ग) अमवृ. प. २२५ । ३. (क) अधू. पृ. ८५ यत्र पुनरध्ययनादिषु जीवद्रव्यादीनां एकान्तग्राहेण नित्यत्वमनित्यत्वं वा परसमय रूपेण प्ररूपणा क्रियते । (ख) अहावृ. पृ. ११७ । (ग) अमवृ. प. २२५ । ४. सू. १।१।७ ॥ ५. वही, १।१।१९ । ६. ब्रउ. श्लो. १२। ७. स. गा. २ की बू. पृ. ९ : जीवो नाम पदार्थः स समयः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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