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________________ ३४७ प्र० १२, सू०६०६-६१६, टि० २-५ १. आत्मसमवतार ___जीव द्रव्य जीवभाव से अव्यतिरिक्त होता है इसलिए इसका समवतार जीवभाव में होता है। यदि जीव का अजीव में समवतार हो तो स्वभाव परित्याग के कारण वह अवास्तविक हो जाएगा। यह नैश्चयिक दृष्टिकोण है। २. परसमवतार परभाव में होने वाला समवतार व्यावहारिक होता है, जैसे-कुण्डे में बेर । यद्यपि बेर अपने स्वभाव में स्थित है फिर भी कुण्डे में आधेय के रूप में स्थित हैं। ३. तदुभयसमवतार __ स्तम्भ गृह का ही एक अंश है इसलिए उसका समवतार गृह में भी होता है और आत्मभाव में तो है ही। वैकल्पिक रूप में समवतार के दो ही प्रकार बतलाए गए हैं--- १. आत्मसमवतार २. तदुभयसमवतार । आत्मभाव में समवतार हुए बिना परभाव में समवतार नही हो सकता । अपने आप में अविद्यमान गर्भ मां के उदर में अवस्थित नहीं हो सकता। हेमचन्द्र ने एक प्रश्न उपस्थित किया है कि आत्मसमवतार सर्वत्र व्याप्त है तब परसमवतार नहीं हो सकता केवल तदुभयसमवतार ही होगा। इस प्रश्न के उत्तर में उनका समाधान है कि परसमवतार में आत्मसमवतार अविवक्षित है। तदुभयसमवतार में आत्मसमवतार विवक्षित है। वास्तव में सब समवतार ही हैं जिनका सूत्रकार ने वैकल्पिक रूप में उल्लेख किया है। चतुःषष्टिका आदि की जानकारी के लिए द्रष्टव्य सूत्र ३७६ । सूत्र ६१६ ५. पुद्गलपरिवर्त (पोग्गलपरियट्टे) पुद्गलपरावर्तन क्षेत्र काल भाव बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म बादर सूक्ष्म पुद्गलपरावर्तन के मुख्यतः चार भेद हैं -द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव । प्रत्येक के दो-दो प्रकार हैं, बादर और सूक्ष्म । कुल मिलाकर पुद्गलपरावर्तन के आठ प्रकार होते हैं। लोक में अनन्त परमाणु बिखरे पड़े हैं। उनमें एक जाति वाले पुद्गल समूह को वर्गणा कहते हैं । औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर, भाषा, उच्छ्वास, मन और कर्म ये आठ प्रकार की वर्गणाएं हैं । पुद्गलपरावर्तन में आहारक शरीर को छोड़कर शेष सात वर्गणाओं का ग्रहण और परित्याग होता है। आहारक शरीर चौदह पूर्व के धारक लब्धिमान् मुनि को प्राप्त होता है। ऐसे मुनि अर्धपुद्गलपरावर्तन से अधिक संसार परिभ्रमण नहीं करते । इस कारण पुद्गलपरावर्तन में आहारक शरीर का ग्रहण नहीं किया जाता है। बादर द्रव्य पुद्गलपरावर्तन :-सर्वलोक में रहने वाले सर्वपरमाणुओं को एक जीव औदारिक आदि सातों ही वर्गणाओं के पुद्गलों को ग्रहण कर जितने समय में छोड़े उतने समय को बादर द्रव्य पुद्गल परावर्तन कहते हैं । १. अहाव, पृ. ११८, ११९: सर्वव्याण्यात्मसमवतारेणात्म यथा कुण्डे बदराणि, स्वभावव्यवस्थितानामेवान्यत्रभावात् । भावे समवतरन्ति–वर्तन्ते, तदव्यतिरिक्तत्वाद्, यथा जीव- ३. वही, आत्मसमवताररहितस्य परसमवताराभावात्, न द्रव्याणि जीवमावे इति, भावान्तरसमवतारे तु स्वभाव हात्मन्यवर्तमानो गर्भो जनन्युदरादौ वर्तत इति । त्यागादवस्तुत्वप्रसंगः। ४. अमव. प. २२८ । २. वही, पृ. ११९ : व्यवहारतस्तु परसमवतारेण परभावे, Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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