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________________ प्र० ११, ०५६-६०३, टि० १२ ३३३ ६. उत्कृष्ट युक्त अनन्त - जघन्य युक्त अनन्त की राशि को जघन्य युक्त-अनन्त की राशि से अभ्यसित (गुणा ) करके एक कम करने से उत्कृष्ट युक्त अनन्त की राशि आती है । उत्कृष्ट युक्त-अनन्त [(जय बुक्तग ७. जघन्य अनन्त अनन्त जघन्य युक्त-अनन्त की राशि को जघन्य युक्त-अनन्त राशि से अभ्यसित (गुणा ) करने पर प्राप्त परिपूर्ण संख्या जघन्य अनन्त अनन्त की संख्या होती है। ( जघन्य युक्त-अनन्त) जघन्य अनन्त अनन्त= : ( जघन्य युक्त अ - अनन्त) अथवा उत्कृष्ट युक्त अनन्त में एक का योग करने से जधन्य अनन्त - अनन्त की राशि होती है । जघन्य अनन्त-अनन्त= ( उत्कृष्ट युक्त - अनन्त + १) अन्य ग्रन्थों के आधार पर जघन्य अनन्त अनन्त की परिभाषा इस प्रकार मिलती है— जघन्य युक्त-अनन्त को वर्ग करने से जघन्य अनन्त - अनन्त का मान प्राप्त होता है । जघन्य अनन्त-अनन्त (जघन्य युक्त-अनन्त) ' अनन्त । ( जघन्य युक्त - अनन्त ) ] -१ ८. मध्यम अनन्त अनन्त - जघन्य अनन्त - अनन्त से आगे सभी स्थान मध्यम अनन्तानन्त के हैं ।' मध्यम अनन्त अनन्त ( जधन्य अनन्त अनन्त + १ ) से लेकर आगे सभी स्थान अर्थात् - मध्यम अनन्त अनन्त जघन्य अनन्त लोकप्रकाश में इसकी परिभाषा दूसरे प्रकार से मिलती है जघन्य अनन्तानन्त और उत्कृष्ट अनन्तानन्त के बीच की सारी संख्याएं मध्यम अनन्तानन्त की है ।' [ ( जघन्य अनन्तानन्त ) + १] मध्यम अनन्त अनन्त र [ उत्कृष्ट अनन्त - अनन्त ) - १] ९. उत्कृष्ट अनन्त अनन्त - श्वेताम्बर आगम परंपरा के अनुसार इसका अस्तित्व नहीं है । दिगम्बर परंपरा के अनुसार तथा कर्म ग्रन्थ में इसकी परिभाषाएं भिन्न-भिन्न रूप से मिलती हैं। दिगम्बर परम्परा में भी वर्गित संवर्गित की परिभाषा के भेद से और प्रक्षेपित राशियों के भेद से इसके तीन रूप हो जाते हैं। यहां चारों परिभाषाएं दी जा रही हैं । १. जघन्य अनन्त अनन्त का तीन बार वर्ग ( अर्थात् अष्ट घात) करना चाहिए। किसी संख्या का तीन बार वर्ग करना हो तो उस संख्या का वर्ग करना, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग करना, फिर वर्गजन्य संख्या का वर्ग करना । उदाहरणार्थ ४ का तीन वार वर्ग करना है । ४ का वर्ग ४४४ = १६, फिर १६ का वर्ग १६४१६ = २५६, फिर २५६ का वर्ग २५६४२५६ =६५५३६ । दूसरे शब्दों में इसे अष्टघात भी कह सकते हैं । ४४×××४×४४४४४४४=६५५३६= ४० तीन बार वर्ग करने के बाद उसमें निम्न अनन्त मान वाली छह राशियां मिलानी चाहिए - १. सिद्धजीव २. निगोद के जीव द्रव्य ६ लोकाकाश और अलोकाकाश के J . ३ वनस्पतिकायिक ४ तीनों काल (भूत, वर्तमान भविष्यत्काल) के समय ५. सर्व प्रदेश | इनको मिलाकर फिर सर्वराशि का तीन बार वर्ग करके उस राशि में केवलद्विक को मिलाने पर उत्कृष्ट अनन्त अनन्त की संख्या का परिमाण होता है। क्योंकि इससे आगे की संख्या की कोई वस्तु नहीं है।' अनुयोगद्वार वृत्तिकार के अनुसार इस मान के पदार्थ का अभाव होने से यह मान व्यवहार में उपयोगी नहीं है । केवलज्ञान व केवलदर्शन की अनन्त पर्यायों २. जघन्य अनन्त - अनन्त को वर्गित संवर्गित करके उत्पन्न राशि में उपरोक्त छह राशियां मिलानी चाहिए । उत्पन्न राशि को पुनः तीन बार वर्गित संवर्गित करके उसमें धर्मद्रव्य और अधर्मद्रव्य संबंधी अगुरुलघु-गुण के अविभाग - प्रतिच्छेद मिला देने चाहिए । अजहण्णमणुक्कोसयाई १. ( क ) नसुअ. ६०३ : तेण परं ठाणाई । (ख) लोप्र. १।१८०, १८१ । २. (क) लोप्र. १२०१ प्राग्वदेतदपि शेषं मध्यस्कृष्टका वधिः । (ख) तिप. ४।३१३ । ३. क. ४. पृ. २२२ । Jain Education International ४. (क) क ४. गा. ८४-८६ : तवग्गे पुण जाय, ताणंत लहु तं च तिक्खुतो । बय तह विन होइत सेवे विप हमे ॥ तं सिद्धा निगोजीया, बगाई कालपुग्गला चेव । समलोगन पुर्ण तिमि केवलम ॥ खिसे तातं वेद, जितु वह इयमत्यवियारो, लिहिलो देविवसूरीहि ॥ (ख) अमवृ. प. २२३, २२४ ॥ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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