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________________ प्र० ४, सू० १००-११४, टि०१-६ ६७ विषय वस्तु का बोध कराने के लिए क्रम की व्यवस्था की जाती है। यह अध्ययन का पहला चरण है। इस चरण को दो दिशाओं में गतिशील बनाया जा सकता है। जहां केवल द्रव्य की क्रम-व्यवस्था समझानी हो वहां द्रव्यानुपूर्वी की औपनिधिकी विधि का प्रयोग किया जाता है। जहां द्रव्यानुपूर्वी का नय के आधार पर विस्तार से बोध कराना हो वहां अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का विवरण मिलता है। शब्द-विमर्श औपनिधिको आचार्य हेमचन्द्र ने अभिधान-चिन्तामणि में निक्षेप, न्यास और उपनिधि को पर्यायवाची बतलाया है।' औपनिधिकी का अर्थ है-विवक्षित अर्थ की पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से स्थापना करना।' आवश्यक के सामायिक आदि छह अध्ययन हैं-उनकी पूर्वानुपूर्वी आदि के क्रम से स्थापना की जाती है वह औपनिधिकी आनुपूर्वी कहलाती है। अनौपनिधिकी आनुपूर्वी में क्रम-व्यवस्था प्रधान नहीं होती। सूत्र ११३ ५. (सूत्र ११३) ___ अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी का विस्तार नय-वक्तव्यता के आधार पर होता है।' नैगम और व्यवहार-यह विस्तार का एक कोण है। संग्रहनय-यह विस्तार का दूसरा कोण है। इन दो कोणों के आधार पर अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी का स्वरूप समझाया गया है। नय सात हैं। उनका समावेश द्रव्यार्थिक और पर्यायाथिक इन दो नयों में होता है। द्रव्यानुपूर्वी की चर्चा में पर्यायार्थिक नय अपने आप गौण हो जाता है। द्रव्यार्थिक नय के दो भेद हैं-अविशुद्ध और विशुद्ध ।' नैगम और व्यवहारनय अनन्त गुणात्मक परमाणु आदि अनन्त द्रव्यों को स्वीकार करते हैं इसलिए ये अविशुद्ध नय हैं। संग्रहनय उन परमाणु आदि अनन्त द्रव्यों में एकता स्वीकार करता है । यह शुद्ध द्रव्य को स्वीकार करता है इसलिए इसे विशुद्ध माना गया है। सूत्र ११४ ६. (सूत्र ११४) नैगम और व्यवहारनय सम्मत अनौपनिधिकी द्रव्यानुपूर्वी के पांच प्रकार बतलाए गए हैं। प्रस्तुत सूत्र में नैगम और व्यवहारनय के आधार पर अनौपनिधिको द्रव्यानुपूर्वी की शिक्षा अथवा व्याख्या पद्धति बतलायी गयी है। उसका पहला अंग है -अर्थपद की प्ररूपणा। सबसे पहले अर्थपद अर्थात् संज्ञा और संज्ञी के संबंध का प्रस्तुतीकरण आवश्यक है। इसके बिना अन्य अङ्गों की कल्पना संभव नहीं। इस शिक्षा अथवा व्याख्या पद्धति का दूसरा अङ्ग है-भङ्गसमुत्कीर्तन । भङ्गसमुत्कीर्तन का अर्थ है-भङ्गों का निर्देश ।' इस शिक्षा अथवा व्याख्या पद्वति का तीसरा अङ्ग है-भङ्गोपदर्शन ।" इसका तात्पर्य है-द्रव्य के साथ भङ्गों की योजना करना । जैसे-त्रिप्रदेशीस्कन्ध-आनुपूर्वी। __ भङ्गसमुत्कीर्तन भङ्गोपदर्शन १. अत्थि आणु पुव्वी १. तिपएसिए आणुपुव्वी २. अत्थि अणाणुपुव्वी २. परमाणुपोग्गले अणाणुपुब्वी ३. अत्थि अवत्तव्वए ३. दुपएसिए अवत्तव्वए। १. अचि. ३१५३४ : निक्षेपोपनिधी न्यासे । ६. अहाव. पृ. ३१ : द्रव्यास्तिकोप्यौघतो विभेद:-अविशुद्धो २. अहाव. पृ. ३१: अधिकृताध्ययनपूर्वानुपादिरचनाश्रय विशुद्धश्च । प्रस्तारोपयोगिनी औपनिधिकोत्युच्यते । ७. नसुअ. ११५। ३. अहाव. पृ. ३१: याऽसावनोपनिधिको सा नयवक्तव्यता- ८. (क) अहाव. पृ. ३१ : संज्ञासंजिसम्बन्धप्ररूपणेत्यर्थः । अयणात् द्रव्यास्तिकनयमतेन द्विविधा प्रज्ञप्ता। (ख) अमव. प. ४८ : संज्ञासंजिसम्बन्धकथनमात्रम् । ४. नसुअ. ११४ से १३० । ९. नसुअ. ११७॥ ५. वही, १३१ से १४६ । १०. वही, ११९ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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