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________________ बारहवां प्रकरण : सूत्र ६१५-६१७ यारेणं आयभावे समोर समोयारेण सम्बद्वाए समोवर आयभावे य । से तं कालसमोयारे ॥ भयभावे समवतरतः, तदुभयसमवतारेग सर्वाध्वनि समवतरतः आत्मभावे च । स एष कालसमव तारः । ६१७. से किं तं भावसमोयारे ? भाव-: समोयारे दुविहे पण्णत्ते, तं जहा आसमोयारे य तदुभयसमोयारे य। कोहे आयसमोयारेणं आयभावे समोवर, तदुभयसमोवारेणं माणं समोयरइ आयभावे य । माणे आयसमोयारेणं आयभावे समो परद, तदुभयसमोवारेणं मायाए समोवर आयभावे य माया आयसमोयारेनं आयभाये समो वरद, तदुभयसमोवारेणं सोने समोयरइ आयभावे य । लोभे आयसमोयारेणं आयभावे समो यरइ, तदुभयसमोयारेणं रागे समोयरइ आयभावे य । रागे आयसमोयारेणं आयभावे समो यर तद्भवसमोवारेणं मोहणिजे समोयर आयभावे यमोजे आयसमोयारेणं आयभावे समोपरद, तदुभवसमोयारेणं अद्रुकस्य पगडीसु समोयरइ आयभावे य । अनुकम्मपगडीओ आवसमोयारेण आयभावे समोयरइ, तदुभयसमो - यारेणं छविहे भावे समोयरइ आयभावे । छविहे भावे आयसमोयारेणं आयभावे समोयरइ, तदुभयसमोयारेणं जीवे समोवर आयभावे य । जोवे आपसमोयारेणं आवभावे समोपरद, तदुभयसमो यारे जोवत्यिकार समोयर आयभावे य । जीवत्यिकाए आयसमोवारेणं आयभावे समोपरड, तदुभयस मोयारे सव्वदच्ये समो यर आयभावे य । Jain Education International अथ कि स भावसमवतार: भावसमवतारः ? द्विविध: प्रज्ञप्तः, तद्यथा - आत्मसमवतारश्च तदुभयसमवतारश्च । क्रोधः आत्मसमवतारेग आत्मयाचे समवतरति तद्भयसमवतारेण माने समवतरति आत्मभावे च । मानः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमयतारेण मायायां समवतरति आत्मभावे च । माया आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमवतारेण सोने समवतरति आत्मभावे च । लोभः आत्मसमवतारेण आरमभावे समयतरति तदुभयसमवतारेण रागे समवतरति आत्मभावे च । रागः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमचतारेण मोहनीये समरति आत्ममायेच मोहनीयम् आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति समवतारेण अष्टकर्मप्रकृतिषु समवतरति आत्मभावे च । अटक प्रकृतयः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरन्ति तदुभयसमव तारेण षड्विधे भावे समवतरन्ति आत्मभावे च । षड्विधः भावः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति समयसमवतारेण जीवे समयरति आत्मभावे च । जीवः आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमचतारेण जीवास्तिकाये समवतरति आत्मभावे च जीवास्तिकाय आत्मसमवतारेण आत्मभावे समवतरति तदुभयसमचतारेण सर्वद्रव्येषु समवतरति आत्मभावे च । " " For Private & Personal Use Only ३४३ वतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वे तदुभयसमवतार के द्वारा सर्वकाल और आत्मभाव में समवतरित हैं। वह काल समवतार है। ६१७. वह भाव समवतार क्या है ? भाव समवतार के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- आत्मसमवतार और तदुभयसमवतार । क्रोध आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमव पर के द्वारा मान और आत्मभाव में समवतरित है। मान आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयस मवतार के द्वारा माया और आत्मभाव में समवतरित है । माया आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वार लोभ और आत्मभाव समवतरित है। लोभ आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वह तदुभयसमवतार के द्वारा राग और आत्म भाव में समवतरित है । राग आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभय समवतार के द्वारा मोहनीय कर्म और आत्मभाव में समवतरित है। मोहनीय कर्म आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा आठ कर्म प्रकृतियों और आत्मभाव में समवतरित है। आठ कर्म प्रकृतियां आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वे तदुभयसमवतार के द्वारा छह प्रकार के भावों और आत्मभाव में समवतरित हैं। छह प्रकार के भाव आत्मसभवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित हैं। वे तदुभयसमवतार के द्वारा जीव और आत्मभाव में समवतरित हैं। जीव आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है । वह तदुभयसमवतार के द्वारा जीवास्तिकाय और आत्मभाव में समवतरित है। जीवास्तिकाय आत्मसमवतार के द्वारा आत्मभाव में समवतरित है। वह तदुभयसमवतार के द्वारा सब द्रव्यों और आत्मभाव में समवतरित है । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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