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१०. मिश्र के संयोग से होने वाला नाम (मीसए) संयोग के आधार पर होने वाला नामकरण । मिश्र संयोग से होने वाले नाम का उदाहरण है हालिक अर्थात् हल से व्यवहार करने वाला । हल आदि अचेतन और बैल आदि सचेतन हैं। इन दोनों के संयोग से बना हुआ नाम मिश्र - संयोग का निदर्शन है ।' राजस्थानी भाषा में प्रचलित हाली शब्द इसी का रूपान्तरण है ।
सूत्र ३३३
१२. (सूत्र ३४०, ३४१ )
स्थापना निक्षेप विवक्षित अर्थ से आधार पर होने वाला नामकरण है, जैसे
११. क्षेत्र के संयोग से होनेवाला नाम ( खेत्तसंजोगे )
क्षेत्र का संयोग भी नामकरण का हेतु बनता है। जैसे—–भरत क्षेत्र में होनेवाला व्यक्ति भारत कहलाता है। इस प्रकरण में उन देशों और देशवासियों के नाम भी उल्लिखित हैं जो मुख्यत: उस समय जैन मुनियों के बिहार क्षेत्र थे ।
सूत्र ३४०, ३४१
सूत्र ३३२
१३. कुल नाम (कुलनामे)
उग्र भोज आदि कुल प्राचीनकाल के प्रसिद्ध कुल रहे हैं। इनका श्रमण धर्म के साथ गहरा संबंध रहा है। भगवान महावीर की परिषद में इनके आगमन का बार-बार उल्लेख मिलता है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य ठाणं ६ । ३५ का टिप्पण |
सूत्र ३४४
१. ( क ) अचू. पृ. ५० मिश्र हलादिकः ।
(ख) अहावृ. पृ. ७२ ।
(ग) अबू
शून्य पदार्थ में उस अर्थ का आरोपण करता है। स्थापना प्रमाण नाम नक्षत्र आदि के कृत्तिका नक्षत्र में उत्पन्न होने वाला व्यक्ति कार्तिक या कृत्तिकादत्त कहलाता है । 3
सूत्र ३४३
१४. पाषण्ड नाम ( पासंडनामे )
पाषण्ड का अर्थ है सम्प्रदाय । प्राचीनकाल में मुख्यतया श्रमण सम्प्रदायों के लिए पाषण्ड शब्द का प्रयोग होता था । इस सूत्र में श्रमण परम्परा के सम्प्रदायों का उल्लेख है । दशवेकालिक टीका में श्रमणों के पांच सम्प्रदायों का उल्लेख है निर्ग्रन्थ, शाक्य, तापस, गैरुक और आजीवक । हेमचन्द्र ने इस गाथा का भाव उद्धृत किया है।*
पंडरंग द्रष्टव्य-सू० २० का टिप्पण ।
कापालिक शैव की एक शाखा ।
अणुओगदाराई
सूत्र ३४५
१५. गण नाम ( गणनामे)
गण के आधार पर होने वाला नामकरण । भगवान महावीर के काल में कई गणराज्य थे । उनमें एक गणराज्य मल्लों का था । ये शक्तिशाली गणराज्य शक्तिशाली 'वज्जी' गणराज्य से सम्बन्ध रखते थे। उसके आधार पर भी नामकरण की परम्परा प्रचलित थी ।
१३२ हजादीनामचेतनत्वाद् बलीवर्दाना सचेतनत्वान्मिश्रद्रव्यतया भावनीया ।
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२ (क) अहावू. पृ. ७२ : भरते जात: भारतो वाऽस्य निवास
इति वा 'तत्र जात:' 'सोऽस्य निवास' इति वा अण् भारत: ।
(ख) अमवृ. प. १३२ ।
३. अमवृ. प. १३१ ।
४. वही, प. १३४ : 'निग्गंथसक्कतावस गेरुयआजीव पंचहा समणा' ।
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