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३. वन्दना
वन्दना अहं विसर्जन की प्रक्रिया है । वन्दनीय, वन्दना और वन्दना करने वाले के बीच एकात्मभाव जुड़ने से ही अस्मिता टूट सकती है । वन्दनीय वह होता है जो अहं, समर्थ या योग्य हो । वन्दना की एक निश्चित विधि है ।
इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है- गुणवान गुण की पूजा । गुण और गुणी में भेद नहीं होता इसलिए गुणवान की पूजा का उल्लेख है । विशिष्ट गुणोपेत व्यक्ति को वन्दन - नमस्कार करना । "
४. प्रतिक्रमण -
प्रतिक्रमण का अर्थ है— वापस आना । सामायिक की स्वीकृति के बाद ज्ञात-अज्ञात सामान्य स्खलनाओं का निराकरण स्तवना और वन्दना से हो जाता है । विनय कर्म - निर्जरण का महान हेतु है। जहां गलती स्पष्ट रूप से प्रतिभासित हो, वहां उससे पीछे हटने की बात आती है। अर्हतों द्वारा प्रतिपादित साधना के विधि-विधानों का अतिक्रमण साधना की स्खलना है । अतिक्रमण के बाद प्रतिक्रमण करने वाला व्यक्ति मूल स्थिति में पहुंच जाता है। स्खलित की निन्दा इस अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है ।"
प्रतिक्रमण, प्रतिचरण, प्रतिहरण, वारणा, निवृत्ति, निन्दा गर्हा और शोधि - ये प्रतिक्रमण के आठ पर्यायवाची नाम हैं । प्रतिक्रमण करने के ये हेतु हैं
१. निषिद्ध काम करना ।
२. विहित काम न करना ।
३. मोक्ष के साधनों में अश्रद्धा होना ।
४. विपरीत प्ररूपणा करना ।
५. कायोत्सर्ग
कायोत्सर्ग का अर्थ है - शारीरिक प्रवृत्ति और ममत्व का विसर्जन । इसका प्रयोग औषधि के रूप में होता है । चारित्र आत्मा को एक शरीर से उपमित किया जाए तो चारित्र विघटक क्रियाएं शरीर में व्रण के समान हैं । व्रण- घाव भरने के लिए औषधि रूप कायोत्सर्ग का उपयोग होता है। प्राचीनकाल में प्रायश्चित्त विधि में कायोत्सर्ग प्राप्त होता था । निष्प्रकम्प शरीर, मौन भाव और एकाग्र मन से अतिचारों का सम्यग् बोध हो जाता है । जैसे करोत से काठ कट जाता है वैसे ही कायोत्सर्ग से कर्म पुद्गलों को आत्मा से दूर हटाया जा सकता है। कायोत्सर्ग अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है व्रण चिकित्सा ।
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६. प्रत्याख्यान
अणुओगदाराई
प्रत्याख्यान अध्ययन का प्रतिपाद्य विषय है-गुण धारणा । अहिंसा, सत्य आदि मूलगुण और दस प्रकार के प्रत्याख्यान रूप उत्तरगुण की स्वीकृति तथा उसकी निरतिचार पालना के लिए विशिष्ट गुणों का आधान प्रस्तुत अध्ययन का फलितार्थ है । प्रतिक्रमण अतीत का और प्रत्याख्यान अनागत का होता है ।
१. ( क ) अचू. पृ. १८ : ततिए चरणादिगुणसमूहवतो वंदणमंसादिएहि पडिवत्ती कातव्वा ।
(ख) अहावृ. पृ. २५ : तत्र गुणा मूलगुणोत्तरगुणव्रतपिण्डविशुयायी गुणा अस्य विद्यन्त इति गुणवान् तस्य गुणवतः प्रतिपत्यर्थं वन्दनादिलक्षणा (प्रतिपत्तिः) कार्येति ।
(ग) अमवृ. प. ३९ ।
२. (क) अच्. पृ. १८ : चउत्थे मूलुत्तरावराहक्खलणाए क्खलितो पच्चागतसंवेगे विसुज्झमाणभावो पमातकरणं संभरंतो अध्पणो णिदणगरहणं करेति ।
(ख) अहावृ. पृ. २५ : स्खलितस्य निन्दा प्रतिक्रमणार्थी
धिकारः ।
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(ग) अमवृ. प. ३९ ॥
३. (क) अलू. पू. १८ पंचम पुन साधू बगोब
पच्छिण चरणादियाइयारवणस्स तिगिच्छं करेति । (ख) अहावृ. पृ. २५ : व्रणचिकित्सा कायोत्सर्गस्य । (ग) अमवृ. प. ३९ ।
४. (क) अबू. पृ. १० छ जहा तरी निर तियारधारणं च जधा तेसि भवति तथा अत्थ
परूवणा ।
(ख) अहावृ. पृ. २५ : गुणधारणा प्रत्याख्यानार्थाधिकारः । (ग) अमवृ. प. ३९ ।
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