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________________ १. ( सूत्र ७४ ) आवश्यक (भावाश्यक) के छह अर्थाधिकार हैं । १. सामायिक २. चतुर्विंशतिस्तव ३. वंदना आवश्यक ४. प्रतिक्रमण ५. कायोत्सर्ग ६. प्रत्याख्यान १. सामायिक टिप्पण सूत्र ७४ अर्थाधिकार १. अठारह पाप का प्रत्याख्यान २. चौबीस तीर्थंकरों की स्तुति ३. गुणिजनों की प्रतिपत्ति-वंदना, विनम्र व्यवहार ४. स्खलित की निंदा ५. व्रण चिकित्सा ६. विशिष्ट गुणों का आधान । चूर्णिकार ने सामायिक का अर्थ समभाव किया है। वह सावद्य योग की विरति से प्राप्त होता है। हिंसा आदि असत् आचरण का त्याग इस बात का सूचक है कि अमुक व्यक्ति में समभाव उदित हुआ है और समभाव का उदय निश्चित ही व्यक्ति को हिंसा आदि असत् आचरणों से विरत करता है। सामायिक का तात्पर्य है समभाव । राग और द्वेष विषम भाव उत्पन्न करते हैं। उनका न होना समभाव है। यह आत्मस्थता की स्थिति है और आत्मस्थता ही सामायिक है । 'सामायिक' समय शब्द से निष्पन्न होता है। यहां समय का अर्थ है एकीभाव को प्राप्त होना । व्याख्या साहित्य में इसका निरुक्त इस प्रकार है- एकत्वेन अयनं गमनं समयः । शरीर, वचन और मन की विविध पर्यायों से निवृत्त होकर द्रव्यार्थ (द्रव्य आत्मा या मूल चेतना) के साथ एकत्व को प्राप्त करना सामायिक है। अथवा जिस प्रवृत्ति का प्रयोजन आत्मोपलब्धि है, वह सामायिक है । ' इसका दूसरा निरुक्त यह है-जीव वध के हेतुभूत जो आय (स्रोत) हैं उन्हें त्याग कर प्रवृत्ति को संगत या सम्यग् करना समाय है। इस प्रयोजन से किया जाने वाला प्रयत्न सामायिक है । Jain Education International हरिभद्र के अनुसार - समता का अर्थ समाय है । समता का अर्थ है - राग द्वेष- वियुक्तता और आय का अर्थ है लाभ समता का लाभ पाने के लिए जो प्रवृत्ति होती है वह सामायिक है ।" २.विशतिस्तव चतुर्विंशतिस्तव का प्रतिपाद्य विषय है उत्कीर्तना । इसमें चौबीस तीर्थंकरों की भाव स्तुति है । तीर्थ का अर्थ हैप्रवचन । तीर्थंकर प्रवचनकार होते हैं । वे समभाव के उपदेशक होने के कारण उपकारी हैं। वास्तविक गुणों का उत्कीर्तन करने से अन्तःकरण की शुद्धि होने के कारण दर्शन की विशुद्धि होती है इसलिए चौबीस तीर्थंकरों की उत्कीर्तना की जाती है ।' १. ( क ) अचू. पू. १८ : जं पढमं सामादियंति अज्झयणं तं च समभावलक्खणं । (ख) 'समय' शब्द से निष्पन्न सामायिक शब्द में 'म' का दीर्घीकरण प्राकृत ( प्राकृतत्त्वात् ) के आधार पर हुआ है जैसे सामाथियों' (समानीतः) शब्द में सकार दीर्घ हुआ है। २. महावु पृ. २६ मोरागद्वेषवितो व सर्वात्म पश्यति, आयो लाभः प्राप्तिरिति पर्यायाः समस्य आय: समायः समो हि प्रतिक्षणमपूर्वज्ञनिदर्शनचरणपर्यायवाची भ्रमणसंक्लेश विच्छेद के निरुपम सुखहेतुभिरधः कृतचिन्तामणिकल्पद्रुमोपमैर्युज्यते स एव समायः प्रयोजनमस्याध्ययनसंवेदनानुष्ठानन्दस्वेति सामायिकम् । २. (क) अबू. पू. १८बिलिए दरिलणविसोहिणिमितं पुण बोधिलाभत्थं च कम्मखवणत्थं च तित्थगराणामुक्त्तिणा कता । (ख) अहावृ. पृ. २५ : यथाभूतान्यासाधारणगुणोत्कीर्तना चतुर्विंशतिस्तवस्येति । (ग) अमवृ. प. ३९ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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