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टिप्पण
सूत्र ६१८ १. (सूत्र ६१८)
निक्षेप अनुयोगद्वार के तीन प्रकार निर्दिष्ट हैं -
१. ओघ निष्पन्न--ओघ का अर्थ है सामान्य । ओघ निष्पन्न का अर्थ है श्रुत के सामान्य निर्देश से होने वाला, जैसेअध्ययन (द्रष्टव्य सूत्र ६१९)।
२. नाम निष्पन्न-सामान्य रूप में निर्दिष्ट अध्ययन का नामोल्लेख करना नाम निष्पन्न है, जैसे-सामायिक (द्रष्टव्य सूत्र ६९६)।
३. सूत्रालापक निष्पन्न-सूत्र के पद विभाग से होने वाला, (द्रष्टव्य सूत्र ७०९)।
सूत्र ६१९ २. अध्ययन (अज्झयणं)
'अझप्पस्स आणयण' इस निरुक्त के अनुसार तथा प्राकृत व्याकरण की विधि से प्पकार, स्सकार, आकार और णकार इन मध्यवर्ती चार अक्षरों का लोप होने पर अज्झयण (अध्ययन) शब्द निष्पन्न होता है। अध्यात्म का अर्थ है-चित्त । प्रशस्त चित्त को सामायिक आदि अध्ययन में योजित करने के कारण यह अध्ययन है।'
सूत्र ६३१ ३. (सूत्र ६३१)
अध्ययन में ज्ञान और क्रिया दोनों की समन्विति के लिए नोआगमतः शब्द प्रयुक्त है। अध्ययन की उपयोगिता है-अध्यात्म का आनयन, पूर्व संचित कर्मों का क्षय और नये कर्मों का अबन्ध । अध्ययन का यही रूप प्रशस्त है। पठन पाठन में अध्ययन शब्द का प्रयोग होता है। यह प्रशस्त और अप्रशस्त दोनों प्रकार का हो सकता है। इसलिए भाव-अध्ययन को इष्ट बताया गया है।'
सूत्र ६४० ४. (सूत्र ६४०)
अक्षीण -जिसका कभी क्षय नहीं हो।
लोक और अलोक के समग्र आकाश की श्रेणियां कभी क्षीण नहीं होती। एक-एक प्रदेश का अपहार करते जाने पर भी आकाश प्रदेशों का कभी अन्त नहीं होता, इसलिए वे अक्षीण हैं। आकाश द्रव्य से सम्बन्धित होने के कारण वह द्रव्य अक्षीण है।
सूत्र ६४२ ५. (सूत्र ६४२)
चूणिकार और हरिभद्र ने भाव अक्षीण के प्रसंग में एक परम्परा का उल्लेख किया है। एक चतुर्दश पूर्व विद् मुनि, जो आगम ग्रन्थों के विषय में एकाग्रचित्त है, वह अन्तर्महर्त मात्र में असीम पर्यायों को जान लेता है। एक-एक पर्याय को एक-एक समय
१, अहावृ. पृ. ११९,१२० : अज्झप्पस्साणयणमित्यादि इह नरुक्तेन विधिना प्राकृतस्वभावाच्च अज्झप्पस्स-चित्तस्स
आणयणं पगारस्सगारागारणगारलोवाओ अज्झयणं । २. वही, पृ. १२०।
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