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________________ प्र० १३, ०६१-६७०, ४०१-६ ३७६ में अवहृत किया जाय तो अनन्त उत्सर्पिणी और अनन्त अवसर्पिणी में भी उनका अवहार नहीं हो सकता । इसे आगमतः भाव अक्षीण कहा जाता है।" ६. ( सूत्र ६४३ ) एक दीप से दूसरे दीपक को प्रज्वलित किया। एक-एक कर सैकड़ों, हजारों दीपक जलाने पर भी मूल दीपक का तेज कम नहीं होता । यह दृष्टांत है । इस दृष्टान्त का दान्तिक है आचार्य । आचार्य स्वयं श्रुतज्ञान के आलोक से आलोकित होते हैं । वे अपने ज्ञान का आलोक दूसरों को भी बांटते हैं। दिन-रात बांटते रहने पर भी उनका ज्ञान कभी क्षीण नहीं होता । शिष्यों को ज्ञान देने पर भी स्वयं का ज्ञान विनष्ट नहीं होता, प्रत्युत बढ़ता है । चूर्णिकार ने 'नो' शब्द का अर्थ मिश्र किया है। उनके अनुसार आचार्य की आगम ग्रन्थ में जो दत्तचित्तता है वह आगम है । उनकी वाणी और शरीर का प्रयोग नोआगम है इस प्रकार नोआगम मिश्र शब्द का द्योतक है । सूत्र ६५४ ७. आय (आए) प्राप्ति, लाभ आदि आय के पर्यायवाची हैं । ' ८. ( सूत्र ६५५ ) सूत्र ६४३ अचित्त लौकिक द्रव्य आय के सन्दर्भ में कुछ शब्द विमर्शनीय हैंशिला मैनसिल E. क्षपणा ( झवणा ) सूत्र ६५५ संत - सत् (श्री गृह आदि में विद्यमान ) सार सुगन्धित द्रव्य स्वापतेय - टीकाकार मलधारी हेमचन्द्र ने स्वापतेय शब्द का प्रयोग द्रव्य (धन) अर्थ में किया है। अभिधान चिन्तामणि में स्वापतेय को धन का पर्यायवाची शब्द माना गया है। प्रस्तुत प्रसंग में धन के विशेष प्रकारों का उल्लेख करने के बाद सामान्य अर्थ के वाचक स्वापतेय शब्द का प्रयोग अस्वाभाविक-सा प्रतीत होता है। चूर्णिकार और वृत्तिकार हरिभद्र का अभिमत इस अस्वाभाविकता को समाप्त कर देता है । 'सावएज्जं स्वाधीनं' 'दानक्षेपग्रहमोक्षभोगेसु' जो अर्थ अपने अधीन है. जिसका दान, भोग आदि के लिए स्वाधीनतापूर्वक व्यय किया जा सके वह स्वापतेय है ।' विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य भगवती ५ / ३३ का भाष्य । सूत्र ६७० क्षपणा, अपचय, निर्जरा ये पर्यायवाची शब्द हैं। ' Jain Education International १. (क) अबू.पू. बोट्सव्वध रस्सागमोबउत्तरस अंत गृहसमेतोवयोगकाले अस्योमोयोगपन्नाने ते समयावहारेण अताहि विपिनीओसपिपीह गोवहिज्जेति ते अतो भणितं आगमतो भावअज्मीणं । (ख) अहावृ. पृ. १२० । २. (क) अचू. पृ. ८८: णोआगमतो भावज्झीणं वायणायरियस उपयोगभावो भागमो बहकाययोगा अ गोआगमो एवं णोआगमो भवति । (ख) महा. पृ. १२० नोभागमतो चेहाचार्योपयोगस्य नोआगमत्वान्मिश्रवचनश्च आगमत्वाद्वाक्काययोश्च नोशब्द इति वृद्धा व्याचक्षते । ३. अहावृ. पृ. १२० : आयो लाभ इत्यनर्थान्तरम् । ४. अचि. २०१९१ : वित्तं रिक्थं स्वापतेयं राः सारः विभवो वसुः । ५. (क) अचू. पृ. ८८ सावतेजं स्वाधीनं दानक्षेपग्रहमोक्षभोगेषु । (ख) अहावृ. पृ. १२० ॥ ६. अमवृ. प. २३६ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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