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________________ ३८० अणुओगदाराई सूत्र ७०८ १०. नोआगमतः भाव सामायिक (नोआगमओ भावसामाइए) सूत्रकार ने भाव सामायिक का स्वरूप विश्लेषण करते हुए आन्तरिक वृत्तियों पर विशेष बल दिया है। वर्तमान में प्रचलित परिभाषा के अनुसार गृहस्थ का सामायिक 'सामायिक' कहलाता है अथवा कुछ मुनियों द्वारा सम्पादित अल्पकालीन ध्यान साधना के प्रयोग को सामायिक कहा जाता है । यह एक दृष्टिकोण है। सामायिक दो प्रकार का होता है-यावज्जीवन और आन्तौहूर्तिक । यावज्जीवन सामायिक मुनियों के होता है । इस सामायिक में क्रियाकाण्ड की प्रधानता नहीं, उदात्त वृत्तियों की प्रधानता होती है। अल्पकालीन सामायिक परिपूर्ण सामायिक का पूर्वाभ्यास है। वास्तविक सामायिक का स्वरूप प्रस्तुत आगम की चार गाथाओं में वर्णित है। सामायिक और सामायिक करने वाले में अभेदोपचार करके यहां श्रमण का भी विवेचन किया गया है। ११. जिसकी आत्मा समानीत है (जस्स सामाणिओ अप्पा) __ प्रस्तुत सूत्र की वृत्ति में सामाणिओ की संस्कृत छाया सामानिक की गई है। किन्तु आवश्यक सूत्र की मलयगिरीया वृत्ति में इस शब्द की छाया 'समानीत:' की गई है जो अर्थ की दृष्टि से उचित प्रतीत होती है । समानीत--सकार का दीर्धीकरण और इकार का ह्रस्वीकरण होने पर समानीतः का सामाणिओ रूप निष्पन्न होता है। सामाणिअ शब्द में 'ण' का लोप और 'य' श्रुति करने पर सामाइय शब्द की निष्पत्ति संभव लगती है। प्रस्तुत संदर्भ में प्रयुक्त संयम शब्द का अर्थ मूलगुण और नियम शब्द का अर्थ उत्तरगुण है। १२. श्रमण (समणो) नोआगमत: भाव सामायिक के सन्दर्भ में श्रमण के लिए कुछ उपमाएं निर्दिष्ट हैं १. उरग सम -परकृत आश्रय में रहने के कारण मुनि सर्प के समान है। चूर्णिकार ने उरग के स्थान पर उदक्त शब्द का ग्रहण किया है। २. गिरि सम परीषह और उपसर्ग उपस्थित होने पर निष्प्रकम्प रहने के कारण मुनि पर्वत के समान है। ३. ज्वलन सम तपस्या के तेज से युक्त होने के कारण मुनि अग्नि के समान है, जैसे-अग्नि तृणों (ईंधन) से तृप्त नहीं होती वैसे ही मुनि सूत्रार्थ से तृप्त नहीं होते। ४. सागर सम गंभीर ज्ञानादि गुण रत्नों से परिपूर्ण और अपनी मर्यादा का अतिक्रमण नहीं करने के कारण मुनि समुद्र के समान है। ५. नमस्तल सम--सर्वत्र निरालम्बन होने के कारण मुनि आकाश के समान है। ६. तरुगण सम-सुख और दुःख में किसी प्रकार की विकृति का प्रदर्शन न करने के कारण मुनि वृक्ष समूह के समान है। ७. भ्रमर सम-अनियत भिक्षावृत्ति के कारण मुनि भौरे के समान है। ८. मृग सम-संसार के भय से उद्विग्न रहने के कारण मुनि हिरण के समान है। ९. धरणि सम-सब प्रकारों के कष्टों को सहने के कारण मुनि पृथ्वी के समान है। १०. जलरूह सम - काम भोग के कर्दम से उत्पन्न होने पर भी उससे निर्लेप रहने के कारण मुनि कमल के समान है। ११. रवि सम-पद्रव्यात्मक लोक को समान रूप से प्रकाशित करने के कारण अथवा अज्ञान-अंधकार का विघात करने के कारण मुनि सूर्य के समान है। १२. पवन सम-अप्रतिबद्ध-विहारी होने के कारण मुनि वायु के समान है। तुलना के लिए द्रष्टव्य-सूयगडो २।२।६४ । ओवाइयं सूत्र २७ । पण्हावागरणाई १०।११। सामायिक के प्रसङ्ग में श्रमण का निरूपण प्रासङ्गिक प्रतीत नहीं होता। आवश्यकनियुक्ति में सामायिक के स्वामित्व का प्रतिपादन करने वाले दो श्लोक हैं किन्तु श्रमण का प्रतिपादन करने वाली चार गाथाएं नहीं हैं। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने सामायिक और श्रमण के संबंध प्रदर्शन का प्रयत्न किया है फिर भी प्रश्न शेष रहता है। यह कल्पना करना अस्वाभाविक नहीं होगा कि ये चार गाथाएं प्रासङ्गिक रूप से प्रतियों में लिखी गई थीं। कालान्तर में वे मूल पाठ के रूप में प्रक्षिप्त हो गयीं। १. अमव. प. २३८ । २. अहाव. पृ. १२०। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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