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तेरहवां प्रकरण : सूत्र ७१४, ७१५
संगहिय-पिंडियत्थं, संगवणं समासओ बेंति । वच्चs विणिच्छियत्थं, ववहारो सव्यदध्वसु ॥ २ ॥ पपणाही
उज्जुसुओ नयविही मुणेयव्वो । इच्छइ विसेसियतरं, पचचुप्पण्णं नओ सद्दो ॥ ३ ॥ वत्थूओ संकमणं,
होइ अवस्थ नए समभिरुदे । वंजण अस्थ-तदुभयं एवंभूओ विसेसे ||४|
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नायमि गियिव्वे afrografम्म चेव अत्थम्मि | जइयव्वमेव इइ जो, उवएसो सो नओ नाम ॥५॥ सर्व्वेसि पि नयाणं, बहुविहवत्तव्वयं निसामित्ता । तं सव्वनयवि जं चरणगुणट्ठिओ साहू ॥ ६ ॥ - से तं नए ॥
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सङ्ग्रहीत पिण्डितार्थं, सहवचनं समासतो ते वति विनिश्वयार्थ,
व्यवहारः सर्वद्रव्येषु ॥ २ ॥ नाही
ऋजु सूत्र: नयविधिः ज्ञातव्यः । इच्छति विशेषिततरं,
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प्रत्युत्पन्नं नयः शब्दः ॥ ३॥ वस्तुन: सङ्क्रमणं,
भवति अवस्तु नये समभिरूठे ।
भ
एवम्भूतः विशेषयति ॥४॥
जाते ह अग्रहीतव्ये व अर्थ
यतितव्यमेव इति यः,
उपदेश: स नयः नाम ॥ ५॥
सर्वेषामपि नयानां बहुविध वक्तव्यतां निशम्य । सर्वनयविशुद्ध यच्चरणगुणस्थितः साधुः ॥ ६ ॥
स एष नयः ।
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२. संग्रह नय संगृहीत और पिण्डित अर्थ को संक्षेप में बताता है ।
व्यवहार नय सब द्रव्यों के विनिश्चित अर्थ का अनुगमन करता है ।
३. ऋजुसूत्र नयविधि प्रत्युत्पन्न का ग्रहण करती है । शब्द नय को ऋजुसूत्र की अपेक्षा विशेषित प्रत्युत्पन्न इष्ट है ।
४. समभिरूढ़ के अनुसार वस्तु का संक्रमण एक शब्द का दूसरे पर्यायवाची शब्द में गमन अवस्तु हो जाता है । एवंभूत नय शब्द और अर्थ इन दोनों को विशेषित करता है - जल आहरण की क्रिया में परिणत घट को ही घट शब्द के द्वारा वाच्य मानता है ।
५. अर्थ को भलीभांति जान लेने पर उपादेय के ग्रहण और हेय के अग्रहण में प्रयत्न करना चाहिए, यह जो उपदेश है, वह नय है ।
६. सभी नयों की अनेक प्रकार की वक्तव्यता सुनकर जो चारित्र और क्षमा आदि गुणों में स्थित है, साधु है वह सर्व नय सम्मत होता है ।" वह नय है ।
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