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सातवां प्रकरण : सूत्र २८० - २८५
खीणनेरइयाउए खोणतिरिक्ख जोणियाउए खीण मणुस्साउए खीणदेवाउए अणाउए निराउए खोगाउ आकम्मविष्यमुक्के, यह जाइ सरीरंगोवंग बंधन-संघाय संघपण संठाण अगयदिबंद घायविपमुक्के खीणसुभनामे खीणअसुभनामे अणामे निष्णामे खीणनामे सुभासुभनामकम्मविप्प मुक्के, खीणउच्चागोए खोजनीयागोए अगोए निगोए खीणगोए सुभाषगोलकम्मविष्यमुपके, खीणदाणंतराए खीणलाभंतराए खीणभोगंतराए खीणउवभोगंतराए लोणवीरियंतराए अनंतराए निरंत राए वीतराए अंतरायकम्मविष्यमुक्के, सिद्धे बुद्धे मुत्ते परिनिब्बुडे अंतगडे सन्यदुक्खप्प होणे से तं निष्कण्णे से तं खइए ॥ २८२. से कि तं खवसमिए ? खओसमिए दुविहे पण तं जहाखओवसमे य खओवसमनिष्कणे य ॥
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२८४. से किं तं खओवसमे ? खओबसमे चउण्हं घाइकमा ब वसमे णं - नाणावर णिज्जस्स दंसणावर णिज्जस्स मोहणिज्जस्स अंतरायस्स खओवसमे णं से तं खओवसमे ||
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२८५. से किं तं खओवसमनिष्फण्णे ? खओवसमनिष्कण्णे अणेगविहे पण्णत्ते, तं जहा - खओवसमिया आभिणिवोहियालढो, सओ समिया नाणढी, खओवस मिया ओहिनाणलद्धी, खओवसमिया मणपज्जवनाणलद्धी; खओवसमिया मइअन्नाणलद्धी, खओवसमिया सुयअन्नाणलद्वी, खओवसमिया विभंगनाणलद्धी; खओवसमिया चक्खुदंसणलद्धी, खओ
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कर्मविप्रमुक्तः, गति-जाति-शरीरअंगोपांग बन्धन संघात संहननसंस्थान अनेक 'बोंदि' वृन्दसंघातविप्रमुक्तः क्षीणशुभनामा अनामा निर्नामा क्षीणनामा शुभाशुभनामकर्मविप्रमुक्तः, सीयोः सोचगोत्र: अगोत्रः निर्गोत्रः क्षीणगोत्र शुभाशुभगोत्रकर्मविप्रमुक्तः श्रीपदानान्तराय: क्षीणलाभान्तरायः क्षीण भोगान्तरायः क्षीणोपभोगान्तरायः क्षीणवीर्यान्तरायः निरन्तराय: क्षीणान्तराय अन्तरायकर्मविप्रमुक्तः, सिद्धः बुद्धः मुक्तः परिनिर्वृतः अंतकृतः सर्वदुःखप्रहीणः । स एष क्षयनिष्यन्न स एष साविकः ।
अनन्तरायः
अथ किस क्षायोपशमिकः ? क्षयोपशमिक द्विविधः प्रज्ञप्तः, तद्यथा--क्षयोपशमश्च क्षयोपशमनिष्पन्नश्च ।
अथ कि स क्षयोपशमः ? क्षयोघातिकर्मणां पशमः - चतुर्णां क्षयोपशमः - ज्ञानावरणीयस्य वर्शनावरणीयस्य मोहनीयस्य अंतरायस्य क्षयोपशमः स एव क्षयोपशमः ।
अथ किस क्षयोपशम निष्पन्नः ? अनेकविधः क्षयोपशमविण्यप्र तद्यथा - क्षायोपशमिका प्रज्ञप्तः, अभिबोधिज्ञानसन्धिः क्षायोपशमिका भूतानलब्धिः शामीचशमिका अवधिज्ञानलब्धि:, क्षायोपशमिका मनः पर्यवज्ञानलब्धिः; क्षायोपशमिका मतिअज्ञानलब्धिः क्षायोपशमिका श्रुतअज्ञानलब्धि:, क्षायोपशमिका विभङ्गज्ञानलब्धिः; क्षायोपशमिका चक्षुर्दर्शन लब्धि:, क्षायोप
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गति, जाति, शरीर, अगोपांग, बंधन, संघात, संहनन, संस्थान, अनेक शरीर पटल के संघात से विप्रमुक्त, क्षीणशुभनाम, क्षीणअशुभनाम, अनाम, निर्नाम, लीगनाम, शुभ - अशुभ नाम कर्म से विप्रमुक्त । क्षीणउच्चगोत्र, क्षीणनीचगोत्र, अगोत्र, निर्गोत्र, क्षीणगोत्र, शुभाशुभ गोत्र कर्म से विप्रमुक्त।
क्षीणानान्तराय, क्षीणलाभान्तराय, लोगभोगान्तराव, क्षीणउपभोगान्तराय, क्षीणवीर्यान्तराय, अनन्तराय, निरन्तराय, क्षीणान्तराय, अन्तराय कर्म से विप्रमुक्त, सिद्ध, बुद्ध, मुक्त, परिनिर्वृत, अन्तकृत और सब दुःखों से प्रहीण । वह क्षयनिष्पन्न है । वह क्षायिक है ।
२८३. वह क्षायोपशमिक क्या है ?
क्षायोपशमिक के दो प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे—क्षयोपशम और क्षयोपशमनिष्पन्न |
२८४. वह क्षयोपशम क्या है ?
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क्षयोपशम-ज्ञानावरणीय दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय इन चार घाति कर्मों का क्षयोपशम होता है । वह क्षयोपशम है ।
२८५. वह क्षयोपशम निष्पन्न क्या है ?
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क्षयोपशम निष्पन्न के अनेक प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे— आयोपशमिकी अभिनिवोधिकज्ञानलब्धि क्षायोपशमिको श्रुतज्ञानलन्धि, क्षायोपशमिकी अवधिज्ञानलब्धि, क्षायोपशमिकी मनः पर्यवज्ञानलब्धि क्षायोपशमिकी मतिअज्ञानलब्धि, क्षायोपलमिकी अशानलधि क्षायोपशमिकी विभंगज्ञानलब्धि, क्षायोषणमिकी दर्शनायोपशमिकी अच दर्शन, क्षायोपशमिकी अवधिदर्शनलब्धि, क्षायोपशमिकी सम्यक्दर्शनलब्धि,
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