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अणुओगदाराई सामायिक के अक्षर, संज्ञि आदि चौदह निरुक्त हैं। देशविरति सामायिक के निरुक्त विरताविरति, संवृतासंवृत, बालपंडित, देशैकदेशविरति, अणुधर्म, अगारधर्म आदि हैं। सर्वविरति सामायिक के निरुक्त सामायिक, सामयिक, सम्यग्वाद, समास, संक्षेप, अनवद्य, परिज्ञा और प्रत्याख्यान ये आठ हैं । विशेष विवरण के लिए देखें वि. भा. गा. २७८४ से २७९८ ।
सूत्र ७१४ १७. सूत्र (सुत्तं)
जिस ग्रन्थ का विस्तार कम और अर्थ अधिक हो, जो बत्तीस प्रकार के दोषों से रहित, लक्षणयुक्त तथा आठ गुणों से उपेत हो, वह सूत्र कहलाता है। सूत्र के आठ गुण हैं-१. निर्दोष २. सारवान् ३. हेतुयुक्त ४. अलंकारयुक्त ५. उपनीत ६. सोपचार ७. मित ८. मधुर।'
प्रकारान्तर से सूत्र के छह गुण हैं
१. अल्पाक्षर २. असंदिग्ध ३. सारवान् ४. विश्वतोमुख (जिसका प्रत्येक सूत्र अनुयोग-चतुष्टय से व्याख्यात हो) ५. अस्तोभक (च, वा आदि निपातों से वियुक्त) ६. अनवद्य ।
व्याख्या के लक्षणसंहिता-अस्खलित पदोच्चारण । पद-एक-एक पद का निरूपण । पदार्थ प्रत्येक पद का अर्थ । पद विग्रह--समस्त पदों में समास विग्रह । चालना-सूत्र के अर्थ में प्रश्न उपस्थित करना । प्रसिद्धि-युक्ति पुरस्सर अर्थ की स्थापना ।
प्रस्तुत श्लोक में प्रयुक्त 'विद्धि' पद द्वयर्थक है। चूणिकार ने इसका अर्थ वृद्धि किया है। हरिभद्र और हेमचन्द्र ने इसका क्रियापरक 'विजानीहि' अर्थ किया है । प्रकरण की दृष्टि से चूर्णिकार का अर्थ समीचीन प्रतीत होता है।
सूत्र ७१५ १८. (सूत्र ७१५) सात नय
वस्तु के एक धर्म को सापेक्ष दृष्टि से जानने वाले ज्ञाता का अभिप्राय नय कहलाता है। प्रस्तुत सूत्र में नय के सात प्रकार बतलाए गए हैं। भगवती में दो नय निर्दिष्ट हैं -द्रव्याथिकनय और पर्यायाथिकनय। दूसरा वर्गीकरण निश्चयनय, व्यवहारनय का मिलता है। स्थानांग में सात नयों का उल्लेख प्राप्त है। वह संग्रह सूत्र है। इसलिए इस वर्गीकरण का मूल स्थानांग से कहीं अन्यत्र खोजना आवश्यक है । आवश्यक नियुक्ति में भी सात नयों का उल्लेख मिलता है। आवश्यक नियुक्ति से अनुयोगद्वार में यह वर्गीकरण अथवा अनुयोगद्वार से आवश्यकनियुक्ति में आया है, यह विमर्शनीय है। इस वर्गीकरण का मूल आधार यदि अनुयोगद्वार है तो इसके आया है कर्ता आर्यरक्षित सूरि हैं, यदि इसके कर्ता नियुक्तिकार हैं तो यह संभावना की जा सकती है कि आगम संकलन काल में देवधिगणी ने इन गाथाओं का अनुयोगद्वार में प्रक्षेप किया है । इस विषय में अभी निश्चयपूर्वक कहना कठिन है। उमास्वाति और सिद्धसेन के वर्गीकरण भिन्न हैं।
उमास्वाति ने नय के पांच प्रकार बतलाए हैं-नगम, संग्रह, व्यवहार, ऋजुसूत्र और साम्प्रत ।
१. अमवृ. प. २४३ : अष्टाभिश्च गुणरूपपेतं यत्तल्लक्षणयुक्तमिति वर्तते, ते चेमे गुणा:निद्दोसं सारवतं च हेउज्जुत्तमलकियं ।
उवणीयं सोवयारं च मियं महरमेव य ॥ २. अमवृ. प. २४३ : अप्पक्खरमसंविद्धं सारवं विस्सओमुहं ।
अत्योभमणवज्जं च, सुत्तं सवण्णुभासियं ।। ३. अचू.पृ. ९० ।
४. अंसुभ. ७.५९, १४१५० । ५. वही, १८१०७ : एत्य दो नया भवंति,तं जहा-नेच्छइयनए
य वावहारियनए य । ६. ठा. ७१३८ । ७. आनि. ७५४ । ८. तसू. ११३४ : नेगमसंग्रहव्यवहारर्जुसूत्रशब्दा नयाः ।
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