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________________ प्र० २, सू० ५०-७२, टि० १४-३० २७. अंगोपांग सहित ( संगोवंगा) वेद के छह अंग हैं- शिक्षा, कल्प, व्याकरण, छन्द, निरुक्त और ज्योतिष्क । इन छहों अङ्गों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ २८. ( सूत्र ५० ) लोकोत्तर भारत में निर्दिष्ट ग्रन्थों के विशेष विवरण के लिए देखें नंदी, समयाओ और कषायपा भावश्रुत सूत्र ६९ सूत्र ५० समुदय—समूह | समिति-अव्यवहित मिलन । समागम परस्पर संबद्धता । २९. अनेकद्रव्यस्कन्ध (अणेगदवियधे) अनेकद्रव्यस्कन्ध के लिए वृत्तिकार ने शरीर का उदाहरण प्रस्तुत किया है। शरीर एक स्कन्ध है । उसमें केश, नख आदि निर्जीव भाग हैं— जीव- प्रदेशों से अपचित हैं। पैर, जंघा, ऊरु आदि सजीव भाग हैं जीव- प्रदेशों से उपचित हैं । इन दोनों भागों के समुदय अथवा विशिष्ट परिणमन का नाम है-शरीर, इसलिए उसका नाम है—अनेकद्रव्यस्कन्ध । ' सूत्र ७२ ३०. नोआगमतः भावस्कंध (नोआगमओ भावखंधे) सामायिक आदि छ अध्ययनों के समुदय समिति का समागम करने पर आवश्यक श्रुतस्कंध उपलब्ध होता है। आवश्यक में संलग्न और आवश्यक के अनुरूप क्रिया करने वाले व्यक्ति के नोआगमतः भावस्कंध होता है। ज्ञान और दर्शन की चेतना आगम है, वह यहां पर विवक्षित नहीं है । शब्दविमर्श १. अमवृ. पू. ३३ : तंत्रांगानि - शिक्षाकल्पव्याकरणच्छन्दोfreerज्योतिष्कायनलक्षणानि षट् । उपांगानि तद्व्याख्यानरूपाणि तैः सह वर्तन्ते इति सांगोपांगाः । २. (क) नसुनं. सू. ८१-१२७ । (ख) स. प्रस. सू. ८८-१३४ । (ग) कपा. पृ. १२२-१३२ । एक से अधिक वस्तुओं को एकत्रित करने से समूह बन जाता है। समूह बनने के बाद भी उसमें बिखराव हो सकता है, इसलिए उनका अव्यवहित सम्पर्क बताने के लिए 'समिति' शब्द की सार्थकता है । अव्यवहित सम्पर्क में भी निरपेक्षता संभव है जैसे -लोहे के अनेक कीलों को परस्पर संबद्ध कर दिया जाए तो भी उनका अस्तित्व अलग अलग रहता है। परस्पर संबद्ध होने के बाद उनकी विशिष्ट परिणति अर्थात् एकात्मकता बनती है, उसे बताने के लिए यहां तीन शब्दों का एक साथ प्रयोग हुआ है ।" प्रस्तुत संदर्भ में सामायिक आदि छह आवश्यकों के समुदयसमितिसमागम से निष्पन्न आवश्यक श्रुतस्कंध को नोआगमतः भावश्रुतस्कंध बताया गया है। । ३. अहावृ. पू. २४ । ४. स. पू. १७ नोवागमती भावबंध जागकिरियागुणसमूहमतो, सो त सामादियादि छन्हं अज्झयणाणं संमेलो । Jain Education International ५७ For Private & Personal Use Only ५. ( क ) अहावृ. पृ. २४, २५ प्रस्तुतावश्यकभेदानां सामापिकादीनां वयामध्यवनानां समुदायसमितिसमागमेन इाध्ययनमेव वायसमुदायत्वात् समुदाय, समुदा यानां समितिः-मेलकः, समुदायमेलकः समुदायसमितिः, इयं च स्वस्वभावव्यवस्थितानामपि भवति अत एकीभावप्रतिपत्यर्थमाह समागमेन समुदयसमितेः समा गमो - विशिष्टैकपरिणाम इति समासस्तेन आवश्यकश्रुतभावस्कन्ध इति लभ्यते । (ख) अमवृ. प. ३८ । www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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