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अणुओगदाराई
सूत्र ७३ ३१. (सूत्र ७३)
प्रस्तुत गाथा में स्कन्ध के बारह पर्यायवाची नाम बतलाए गए हैं। समभिरूढ़ नय के अनुसार एक अर्थ के वाचक दो शब्द नहीं हो सकते । प्रत्येक शब्द भिन्न अर्थ का वाचक होता है। हरिभद्रसूरि ने प्रत्येक शब्द में विद्यमान अर्थभेद को स्पष्ट किया है
१. 'गण' शब्द का प्रयोग मल्ल आदि गणों के लिए किया जाता है। २. 'काय' शब्द का प्रयोग एक बिन्दु पर घनीभूत अनेक व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जैसे-पृथ्वीकाय । ३. 'निकाय' शब्द का प्रयोग पृथक्-पृथक् व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जैसे-षड्जीवनिकाय, नगरनिगमनिकाय __ आदि। ४. 'स्कन्ध' का प्रयोग परमाणु निर्मित समूह के लिए किया जाता है, जैसे-त्रिप्रदेशी स्कन्ध । ५. 'वर्ग' का प्रयोग समान जाति वाले समूह के लिए किया जाता है, जैसे-गौवर्ग । ६. 'राशि' का प्रयोग ढेर के लिए किया जाता है, जैसे-अन्नराशि। ७. 'पुञ्ज' शब्द का प्रयोग बिखरी हुई वस्तु को एकत्रित करने के लिए किया जाता है, जैसे-धान्यपुञ्ज । ८. 'पिण्ड' का प्रयोग पृथक् वस्तु को एकत्रित करने के लिए किया जाता है, जैसे-गुड़ का पिण्ड । ९. 'निकर' का प्रयोग एक पात्र में डाली हुयी वस्तुओं के समूह के लिए किया जाता है, जैसे-पात्र में डाले गए सिक्कों
का निकर। १०. 'संघात' का प्रयोग मिलन के लिए किया जाता है, जैसे-तीर्थस्थानों में जनसंघात । ११. 'आकुल' का प्रयोग संकीर्ण स्थान में बहुत लोगों के इक्कट्ठे होने के लिए किया जाता है, जैसे-जनाकुल राजमार्ग। १२. 'समूह' का प्रयोग समुदाय के लिए किया जाता है, जैसे नगरनिवासी जनसमूह ।
१. अहाव. पु. २५ : मल्लगणवद्गणः पृथिवीसमस्त जीवकायवत्कायः व्यादिपरमाणुम्कन्धवत्स्कन्धः गोवर्गवद्वर्गः शालिधान्यराशिवराशि: विप्रकीर्णधान्यपुजीकृतपुजवत्पुञ्जः गुडादिपिण्डीकृतपिंडवत् पिण्डः हिरण्यादिद्रव्यनिकरवन्निकरः तीर्थादिषु संमिलितजनसंघातवत् संघातः राजगृहाङ्गणजनाकुलवत् आकुलं पुरादिजनसमूहवत् समूहः ।
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