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भूमिका उनका ७५ वर्ष का जीवनकाल ठीक बैठता है, जैसे
जन्म-- वी०नि०सं० ५२२ दीक्षा- "" " ५८४ युगप्रधान- "" " ५४४ स्वर्गवास- "" "५९०
आर्यरक्षित ने वज्रस्वामी के पास अध्ययन किया था । वज्रस्वामी वी०नि०सं० ५८४ में स्वर्गस्थ हुए थे। अत: उनके बाद आर्यरक्षित का युगप्रधान आचार्य के रूप में प्रसिद्धि पाना उचित ही है।
पुरातत्त्व में आगम विषयक चर्चा करते हुए लिखा गया है-"श्वेताम्बर जैनों ना पीस्तालीस आगमों मां अनुयोगद्वार अने नन्दी सूत्र सौ थी अर्वाचीन छ। नन्दी सूत्र देवधिगणि क्षमाश्रमणे पोते रचेलु छे ज्यारे अनुयोगद्वार तेमना पहेला आर्यरक्षिते रच्यु गणाय छ। आ गमे तेम होय पण एटलं तो चोक्कस छे के देवद्धिगणि क्षमाश्रमणे वल्लभीपुर मां वी०नि०सं० ९८० मां आगमों नुं पुनरुद्धार कर्यो त्यारे अनुयोगद्वार सूत्र आगम तरीके गणातुं हतुं । पट्टावलि प्रमाणे देवद्धिगणी महावीर पछी ९८० वर्षे थया अटले ४७० वर्ष बाद करतां वि०सं० ५१० एटले ई० सन् ४५४ मां थया गणाय छे । तेमना समय मां अनुयोगद्वार सत्र आगम तरीके गणातुं हतं तेने माटे सौ बरस नो के ओछा मां ओछो ५० वर्ष नो गालो मुकी तो अनुयोगद्वार सूत्र चौथा सैका ना मध्य मां के अन्त मां थयेलु गणाय ।
अनुयोगद्वार आर्यरक्षित रचेलं छे ए परम्परा साची होय तो अनुयोगद्वार ई. सन् पहेला सैका मां आवै छे कारण के पट्टावलिओ प्रमाणे आर्यरक्षित महावीर पछी ५७० वर्ष पछी थया गणाय छे । एटले के ई० स०४४ मां थया पण अनुयोगद्वार आटलं प्राचीन हज के नहीं ते हजी विवाद नो विषय छे पण तेनो समय ई० सन् पहेला संका अने पांचमां सैका ना मध्य पहेला छे अ बाबत शंकास्पद नथी । ऊपर कह्य ते प्रमाणे तेने चौथा संका ना अन्त मां के मध्य मां मुकी अयोग्य नथी।"
उपर्युक्त कथन का वालभी स्थविरावलि के साथ मतैक्य नहीं है। वी०नि० ५७० में आर्यरक्षित का जन्म होता तो ५९८ तक उनका स्वर्गगमन तथा ५८४ के बाद उनका युगप्रधान आचार्य के रूप में प्रसिद्धि पाना उचित नहीं लगता।
पण्डित दलसुख मालवणिया ने अनुयोगद्वार का कालनिर्णय करते हुए लिखा है ---अनुयोगद्वार के कर्ता कौन है ? यह कहना कठिन है किंतु इतना तो कहा जा सकता है कि वह आवश्यक सूत्र की व्याख्या है अत: उसके बाद का तो है ही। उसमें कई ग्रन्थों का उल्लेख हुआ है । यह कहा जा सकता है कि वह विक्रम पूर्व का ग्रन्थ है ।'
उपर्युक्त विश्लेषण के आधार पर आर्य रक्षित का समय बी० नि० पांचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध से पहले तो हो ही नहीं सकता। उनके जीवन प्रसंगों और पट्टावलियों के अनुसार हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि आर्य रक्षित का समय वी०नि० की छट्ठी शताब्दी के पूर्वार्द्ध में ही होना चाहिए और अनुयोगों का पृथक्त्व तथा अनुयोगद्वार की रचना शताब्दी के उत्तरार्द्ध में होनी चाहिए। रचना शैली
अनुयोगद्वार की रचना प्रश्नोत्तर-शैली प्रधान है। इसका अधिकांश भाग गद्यात्मक है। बीच-बीच में पद्य भी उपलब्ध हैं। उनमें से अधिकांश पद्य सूत्रकार द्वारा उद्धृत प्रतीत होते हैं । कुछ पद्य अन्य ग्रंथों से अथवा वाचनाकाल में देवधिगणी द्वारा संग्रहीत हैं यह निर्णयपूर्वक नहीं कहा जा सकता । कुछ पद्य स्वरचित भी हो सकते हैं । अनुगम के नौ प्रकारों का उल्लेख केवल पद्य में ही मिलता है। इससे अनुमान किया जा सकता है कि कुछ गाथाएं पूर्व साहित्य से उद्धृत की गई हैं । (द्रष्टव्य सूत्र १६५) .
प्रस्तुत आगम की रचना दृष्टिवाद अथवा चौदह पूर्वो की अध्ययन विधि का ज्ञान करवाने के लिए हुई है । इसीलिए सूत्रकार को विस्तृत शैली अपनाने की आवश्यकता हुई। यदि आचारांग की भांति संक्षिप्त शैली का आश्रय लिया जाता तो यह सूत्र अगम्य ही रह जाता । प्रस्तुत आगम दृष्टिवाद की व्याख्या पद्धति समझाने के लिए है इसलिए इसका स्वरूप व्याख्यात्मक है। इसकी शैली सूत्रात्मक नहीं है।
विषय वस्तु को स्पष्ट करने के लिए सूत्रकार ने दृष्टांतों और उपमाओं का यथावकाश प्रयोग किया है-उदाहरण स्वरूप -१. समय का दृष्टांत (द्रष्टव्य सूत्र ४१६) २. पल्य का दृष्टांत (सूत्र ४२२) ३. प्रस्थक दृष्टांत (सूत्र ५५५) ४. वसति दृष्टांत (सूत्र ५५६) ५. प्रदेश दृष्टांत (सूत्र ५५७) ।
श्रमण के लिए उरग, गिरि आदि बारह उपमाओं का प्रयोग किया गया है। (द्रष्टव्य सूत्र ७०८)
१. जैसाबृइ १, पृ. ५७॥
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