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अणओगदाराई
व्याख्या ग्रन्थ
अनुयोगद्वार पर तीन व्याख्या ग्रन्थ उपलब्ध हैं१. चणि २. हारिभद्रीया वृत्ति
३. मलधारीया वृत्ति चणि-.
इसके कर्ता जिनदास महत्तर हैं । इसका समय विक्रम की ७ वीं शताब्दी है। चणि का ग्रन्थाग्र २२६५ श्लोक प्रमाण है। इसकी पृष्ठ संख्या ९१ है ।।
चूणि की भाषा प्राकृत है। इसमें अनुयोग विधि का विश्लेषण है तथा कुछ विशिष्ट स्थलों को उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया गया है। इसमें तलवर, कौटुम्बिक, इभ्य, सार्थवाह, वापी, पुष्करिणी, सारणी आदि शब्दों की व्याख्या की गई है । प्रसंगानुसार सांस्कृतिक, भौगोलिक, राजनैतिक और सामाजिक विषयों का विवरण मिलता है। चूर्णिकार ने जिनभद्र विरचित शरीरपद से संबंधित चूणि को उद्धृत किया है । चूणि के अन्त में यह प्रशस्ति मिलती है सरीरपदस्स चुण्णी जिणभद्दखमासमणकित्तिया समत्ता।' हारिभद्रीया वृत्ति
हरिभद्र आगम सूत्रों के प्रसिद्ध टीकाकार हैं ! उन्होंने आवश्यक और दशवकालिक पर विस्तृत टीका लिखी है । इनके द्वारा लिखित नन्दी और अनुयोगद्वार की टीकाएं संक्षिप्त हैं। इनमें चूणि की शैली का अनुसरण किया गया है। अनेक स्थानों पर ऐसा प्रतीत होता हैं कि हरिभद्र चूणि की प्राकृत भाषा का संस्कृत मे अनुवाद कर रहे हैं। हरिभद्र सूरि ने अनेक स्थलों पर बीच-बीच में चूणि के पाठ उद्धृत किए हैं ' उन्होंने अपनी स्वतंत्रता का भी प्रयोग किया है । इसीलिए वृत्ति में चूणि से अधिक विस्तार है। इस टीका का नाम शिष्यहिता है। हरिभद्र ने इसका 'अनुयोगद्वार का विवरण' के रूप में उल्लेख किया है ।
प्रणिपत्य जिनवरेन्द्र त्रिदशेन्द्रनरेन्द्रपूजितं वीरम् । अनुयोगद्वाराणां प्रकटाएँ विवृतिमभिधास्ये ॥' कृत्वा विवरणमेतत्प्राप्तं यत्किञ्चिदिह मया कुशलम् ।
अनुयोगपुरस्सरत्वं लभतां भव्यो जनस्तेन ॥ मुद्रित प्रति की पृष्ठ संख्या १२८ है । मलधारीया वृत्ति--
मलधारी हेमचन्द्र ने अनुयोगद्वार पर वृत्ति लिखी है। उन्होंने चूणि और टीका (विवरण) की व्याख्या को सरल शैली में प्रस्तुत किया है । अपनी ओर से कुछ नया भी जोड़ा है। वास्तव में चूणि हरिभद्र व हेमचन्द्र दोनों के लिए आधारभूत रही है । वृत्ति के अन्त में उन्होंने अपनी गुरु परम्परा का विस्तार से उल्लेख किया है।
इस वृत्ति का ग्रन्थान ५९०० श्लोक प्रमाण है । आचार्य मलधारी हेमचन्द्र का समय बारहवीं शताब्दी है। १८ जुलाई, १९९६
गणाधिपति तुलसी जैन विश्व भारती, लाडनूं
आचार्य महाप्रज्ञ
१. अचू. पृ. ७४ । २. अहावृ. पृ. २-५=अचू. पृ. २-५। ३. अहावृ. पृ. १।
४. वही, पृ. १२८ । ५. अमवृ.प. २५०,२५१ ।
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