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________________ अणुओगदाराई अनुयोग आगम विषय द्रव्यानुयोग दृष्टिवाद द्रव्यतत्त्व चरणकरणानुयोग कालिकसूत्र आचार गणितानुयोग सूर्यप्रज्ञप्ति आदि गणित, काल धर्मकथानुयोग उत्तराध्ययन आदि चरित, दृष्टान्त यह वर्गीकरण वीर नि०५८४-५९७ का मध्यवर्ती है। इससे आगम अध्ययन की नयप्रधान परिपाटी परिवर्तित हो गई। नयमुक्त अध्ययन की परम्परा का सूत्रपात हुआ । दिगम्बर परम्परा में यह वर्गीकरण कुछ रूपान्तर से मिलता है, जैसेप्रथमानुयोग महापुराण, पुराण महापुरुषों के जीवन चरित करणानुयोग त्रिलोकप्रज्ञप्ति लोकालोक विभक्ति, त्रिलोकसार गणिल, काल चरणानुयोग मूलाचार आचार द्रव्यानुयोग प्रवचनसार, गोम्मटसार आदि द्रव्य तत्त्व। नन्दी सूत्र की स्थविरावलि और प्रभावक चरित में भी अनुयोगों का उल्लेख है। विशेषावश्यक भाष्य के कर्ता जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने अनुयोगों की चर्चा की है। अनुयोग के पृथक्करण से पहले प्रत्येक सूत्र में चार अनुयोगों का व्याख्यान और नयपद्धति से विचार होता था पर अनुयोग के पृथक्करण से नय पद्धति से विचार करने की परम्परा छिन्न हो गई। आर्य वज्रस्वामी तक कालिकश्रुत में अनुयोग का पृथक्करण नहीं हुआ था। उनके बाद आर्यरक्षित ने पृथक्त्वानुयोग का काम किया। व्याख्या ग्रन्थों में अनुयोग देने की विधि इस प्रकार है--सबसे पहले शिष्य को सूत्र का अर्थ बताना चाहिए, दूसरी बार निर्यक्ति मिश्रित पाठ का बोध देना चाहिए और तीसरी बार शेष सभी विषय पढ़ाना चाहिए। रचना काल आर्यरक्षित का समय वीर निर्वाण की छट्ठी शताब्दी (ई० की प्रथम शताब्दी) है। वालभी स्थविरावलि के अनुसार आर्यरक्षित वी०नि०सं० ५४४ में दीक्षित हुए और ५९७ में स्वर्गस्थ हुए। माथुरी और वालभी दोनों वाचनाओं के अनुसार आर्यरक्षित भगवान महावीर के बाद २०वें पट्टधर थे । वज्र-स्वामी के पश्चात् उनका नामोल्लेख आता है। अनुयोगद्वार माथुरी वाचना के अंतर्गत है। आचार्य मलयगिरि ने ज्योतिष्क रण्ड की टीका में इसका उल्लेख किया है। पट्टावलि समुच्चय में आर्य रक्षित का जीवनकाल ७५ वर्ष ७ मास और ७ दिन का बताया गया है। वी. नि० ५४४ में दीक्षा और ५९७ में स्वर्गवास होने की बात सही है तो आर्य रक्षित का जन्म वी०नि० ५२२ के पास होना चाहिए। अनुमान किया जा सकता है कि उन्होंने २२ वर्ष की अवस्था में दीक्षा ली थी। जैन कालगणना के अनुसार आर्य रक्षित वीर नि०सं० ५८४ के बाद १३ वर्ष तक युगप्रधान आचार्य रहे। इस क्रम से भी १. रक्षा. ११४३-४६ : प्रथमानुयोगमाख्यानं चरितं पुराणमविपुण्यम् । बोधि समाधि निधानं बोधति बोधः समीचीनः ।। लोकालोकविभक्तेर्युगपारवृत्तेश्चतुर्गतीनाञ्च । आदर्शमिव तथा मतिरवैति करणानुयोगञ्च ॥ गृह पेध्यनगाराणां चारित्रोत्पत्तिवृद्धिरक्षाङ्गम् । चरणानुयोगसमयं सम्यगज्ञानं विजानाति ।। जीवाजीववस्तुतत्त्वे पुण्यापुण्ये च बन्धमोक्षौ च । द्रव्यानुयोगदीपः श्रुतविद्यालोकमातनुते ॥ २. विमा. ९५० : आसी पुरा सो नियओ अणुयोगाणमपहत्तभावम्मि । संपइ नत्थि पुहुत्ते होज्ज व परिसं समासज्ज ।। ३. वही, २२८४-२२८६ : जावं ति अज्जवइरा अपहत्तं कालियाणुओगस्स । तेणारेण पहत्तं कालियसुय दिट्ठिवाए य ।। अपहत्तमासि वइरा जावं ति पुहत्तमारओऽभिहिए । के ते आसि कया वा पसंगओ तेसिमुप्पत्ती ।। अपहत्ते अणुओगो चत्तारि दुवार भासई एगो। पुहत्ताणुओगकरणे ते य तओ वि वोच्छिन्ना ।। ४. नसुनं. १२७१५: सुत्तत्थो खलु पढमो, बीओ निज्जुत्तिमीसिओ भणिओ। तइयो य निरवसेसो, एस विही होइ अणुओगो।। Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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