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अणुओगदाराई आवश्यक है कि वह शेष द्रव्यों के कितने भाग में अवस्थित है। भाव से उसके बदलते हुए स्वभाव का बोध होता है। अतः वर्तमान में वह जिस भाव में विद्यमान है इसका अवबोध भी बहुत मूल्यवान है। कौन द्रव्य किस द्रव्य से अल्प या अधिक है-यह भी उसके परिचय का एक महत्वपूर्ण पक्ष है। शब्द-विमर्श सत्पदप्ररूपणा
द्रव्य के अस्तित्व और नास्तित्व का विचार करना । विवक्षित पदार्थ घट, पट आदि की भांति सत् है या खर-विषाण अथवा आकाश-कुसुम की भांति असत् है, इस प्रकार का निरूपण करना।' द्रव्यप्रमाण
विवक्षित पदार्थ की संख्या का निरूपण करना। क्षेत्र
विवक्षित पदार्थ के आधारभूत क्षेत्र का निरूपण करना।' स्पर्शना
विवक्षित पदार्थ द्वारा किए गए आकाश-प्रदेशों के स्पर्शन का निरूपण करना। क्षेत्र पदार्थ द्वारा अवगाहित मात्र होता है । और स्पर्शना में अनन्तरित आकाश-प्रदेशों का भी ग्रहण होता है। जैसे-परमाणु द्वारा अवगाहित क्षेत्र एक प्रदेश है पर वह स्पर्श सात आकाश प्रदेशों का करता है। चार दिशाओं में चार प्रदेश और ऊर्ध्व व अधः दो दिशाओं में दो प्रदेश तथा एक प्रदेश वह जिसमें वह अवगाढ़ है-इस प्रकार स्पर्शना सात प्रदेश की हो जाती है। सप्त-प्रदेश की स्पर्शना का उल्लेख भगवती में भी मिलता है। काल
विवक्षित पदार्थ की कालावधि का निरूपण करना।' अन्तर
कोई पदार्थ अपने विवक्षित स्वरूप का परित्याग कर पुनः उसी स्वरूप को प्राप्त करता है. उसके बीच का समय अन्तर या विहरकाल कहलाता है। जैसे- त्रिप्रदेशी स्कन्ध अपने रूप को छोड़कर पुन: त्रिप्रदेशी स्कन्ध के रूप में परिणत होता है। इन दोनों पर्यायों के बीच का काल अन्तर काल है।' भाग
विवक्षित पदार्थ शेष पदार्थों के कितने भाग में है, इसका निरूपण करना।' तत्त्वार्थसूत्र की मार्गणाओं में भाग का उल्लेख नहीं है। कषायपाहुड़ में भाग के स्थान पर भागाभाग का उल्लेख है।" भाव
विवक्षित पदार्थ में औदयिक औपशमिक आदि कितने भाव होते हैं, इसका निरूपण करना।"
१. अमव. प. ५४ : सदर्थविषयं पदं सत्पदं । तस्य प्ररूपणं
प्रज्ञापनं सत्पदप्ररूपणं तस्य भावः सत्पदप्ररूपणता। इह स्तम्भकम्मादीनि पदानि सदर्थविषयाणि दृश्यन्ते, खरशृगव्योमकुसुमादीनि त्वसदर्थविषयाणि। २. वही, द्रव्याणां प्रमाणं-संख्या-स्वरूपं प्ररूपणीयम् । ३. वही, क्षेत्रं- तदाधारस्वरूपं प्ररूपणीयम् । ४. अहावृ. पृ. ३५ : क्षेत्रमवगाहमात्रं स्पर्शना तु स्वचतसृष्वपि दिक्षु तबहिरपि वेदितव्येति, यथेह परमाणोरेकप्रदेश क्षेत्र
सप्तप्रदेशा स्पर्शनेति । ५. अशुभ. १३३६१-६५।
६. अमवृ. ५. ५४ : कालश्च तत स्थितिलक्षणो वक्तव्यः । ७. वही, अन्तरं विवक्षितस्वमावपरित्यागे सति पुनस्तद्भाव
प्राप्तिविरहलक्षणं। ८. वही, शेषद्रव्याणां कतिभागे वर्तन्ते इत्यादि लक्षणो
भागः। ९. तसू. १।८ : सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरमावाल्पबहुत्वैश्च । १०.कपा. पृ. ३९२। ११. अहाव. पृ. ३४ : आनुपूर्याविद्रव्याणि कस्मिन् भावे
वर्तन्ते इत्येवंरूपो भावः।
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