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________________ प्र० ४ ०१२३, १२४, टि० १३-१४ अल्पबहुत्व करना।" आनुपूर्वी आदि द्रव्यों की परस्पर द्रव्यार्थ प्रदेशार्थ और उभयार्थ की अपेक्षा से अल्पता और बहुलता का निरूपण कषाय- पाहुड़ में अनुगम के इन सभी प्रकारों का ओघ और आदेश – इन दो दृष्टिकोणों से विचार किया गया है।" सूत्र १२३ १३. (सूत्र १२३ ) आनुपूर्वी आदि द्रव्य अनन्त होते हैं और लोक के प्रदेश असंख्य हैं। असंख्यप्रदेशात्मक लोकाकाश में उनका समावेश कैसे हो सकता है ? इस प्रश्न का समाधान सूक्ष्मता के आधार पर किया गया है ? परिणति दो प्रकार की होती है - सूक्ष्म और स्थूल । सूक्ष्म परिणति के कारण अनन्तप्रदेशात्मक अनन्त द्रव्य भी असंख्यप्रदेशात्मक लोक में समा जाते हैं। क्षमता की विलक्षणता भी इसका एक महत्त्वपूर्ण कारण है । सूत्र १२४ १४. सम्पूर्ण लोक में हो सकता है (सालोए वा होज्जा) अचित्त-महास्कन्ध स्वाभाविक परिणमन से होता है । वह संपूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है। उसकी अपेक्षा एक द्रव्य को सर्वलोकव्यापी कहा गया है। जिनभद्रगणि ने केवली समुद्घात के समय होने वाले महास्कन्ध के संदर्भ में अचित्त शब्द की मीमांसा की है । उनके अनुसार केवली समुद्घात के समय होनेवाला कर्मपुलों का महास्कन्ध जीवाधिष्ठित होने के कारण सचित होता है।* हेमचन्द्र ने इन दोनों महास्कन्धों का विशद तुलनात्मक अध्ययन प्रस्तुत किया है । अति महास्कन्ध सम्पूर्ण लोकव्यापी स्वभाव से परिगत तिरछे लोक में असंख्य-योजन प्रमाण, अनियतकाल की स्थिति वाला वृत्त, ऊंची और नीची दिशा में चौदह रज्जु परिमाण, सूक्ष्म पुद्गलों के परिणाम से परिणत होता है। प्रथम समय में उसकी आकृति दण्डाकार होती है, द्वितीय समय में कपाटाकार होती है, तृतीय समय में वह मंथनी के आकार का होता है और चतुर्थ समय में वह पूर्ण लोक में व्याप्त हो जाता है, पांचवें, छठे और सातवें समय में उसकी प्रतिलोम क्रिया होती है, आठ समय के पश्चात् वह विनष्ट हो जाता है।" १५. नाना द्रव्यों की अपेक्षा से नियमतः सर्वलोक में होते हैं (नाणादध्वाई पटुच्च नियमा सम्बलोए होना) प्रत्येक आकाशप्रदेश में अनन्त आनुपूर्वी द्रव्य उपलब्ध होते हैं। इसके दो हेतु हैं - १. अमवृ. प. ५४ : अल्पबहुत्वं चानुपूर्व्यादिद्र त्र्याणां द्रव्यार्थप्रदेशार्थ पदार्थताश्रयमेन परस्परं स्तोकस्यचिन्तालक्षणं प्ररूपणीयम् । २. कपा. पृ. ३७७ से ३९७ । ३. पू. ३४संदेशात्मकेोऽनन्तामामापूर्वादिद्रव्याणां सूक्ष्मपरिणाम युक्तत्वादवस्थानं भावनीयमीति । ४. अहावृ. प. ३४ : सम्वलोए वा होज्जत्ति यदुक्तं तत्राचितमहास्कंध ः सर्वलोकव्यापकः समयावस्थायी सकललोकप्रमाणोऽवसेयः । ५. विभा. ६४४ : १०१ ६. विमा ६४४ की वृत्ति । ७. (क) अचू. पृ. ३३,३४ । Jain Education International समुग्धायसचितकम्मयोगानन महा पद तत्मानुभावो हो अचितो महाधो ॥ (ख) अहावृ. पृ. ४६ : सीसो पुच्छइदव्वाणुपुविए एवं सम्बलोगावगाइति, कहं पुण महं एव वा भवति ? उच्यते केवलिसमुधात उक्तं चकेवलिउग्धाओ इव समयट्टम पूर रेयति य लोये । अचित्तमहाखंधो वेला इव अतर णियतो य ॥ अतिमहाधी सलोमेसी सलोगमेत्तो वीससापरिणतो भवति, तिरियम संजोयणप्यमाणो अणियतकालठीती वट्टो उद्यमहोबोट्सरम्यमाणो सुमोग्गलपरिणामपरिणओ पदमसमये दंड भवति मिलिए कवाडं तइए मंध करेड चउत्थे लोगपूरणं पंचमादिसमएस पडिलोमं संहारेण असमयते सम्या तस्स बंधन विभासी एस जननिहिवेला इव लोगपूरणरेयकरणेण ठितो लोगपुग्गलाणुभावो, सव्वण्णवयणतो सद्धेतो इत्यलं प्रसंगेन । ८. अहावृ. पृ. ३५, यस्मादेकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे सूक्ष्मपरिणामपरिणतान्यनन्तान्यानुपूर्वीद्रव्याणि विद्यन्ते । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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