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तेरहवां प्रकरण सूत्र ६३२-६३९
एगो अणुवउतो आगमओ एगे दीर्ण, पुहतं नेच्छतिरहं अणुवउत्ते सहनयाणं जाणए अवत्थू । कम्हा ? जइ जाणए अणुवडते न भव से तं आगमओ दम्बरणे ॥
६३७. से कि तं नोआगमओ दयभीगे ? नोब्रागमओ दव्वणे तिविहे पण्णत्ते, तं जहा जाणगसरीरदव्वज्भोणे भवियसरीर
दव्वज्भोणे दरभोणे जाणगसरीर-भविय
सरीरवतिरिते दध्वम्भीणे ||
वा
६३९. से कि तं भवियसरीरदस्यपणे ? भवियसरीरदव्वीणेजे जीवे जोणिजम्मणनिक्खते इमेणं चेव आदत्तएणं सरीरस मुस्सएणं जिण दिट्ठेणं भावेणं अज्झीणे त्ति पयं सेयकाले सिक्खिस्सइ, न ताव सिक्ख । जहा को दिट्ठतो ? अयं महकुंभे भविस्ns अयं धयकुंभे भविस्सइ । से तं भवियसरीरदव्व प्रभो ॥
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पृथक्त्वं नेच्छति । त्रयाणां शब्दनयानां अनुपयुक्त अवस्तु कस्मात् ? यदि ज्ञः अनुपयुक्तः न भवति । तदेतद् आगमतो द्रव्याक्षीणम् ।
अथ
६३८. से कि तं जाणगसरीरदव्यज्झोणे ? जाणगसरीरदव्वज्झीणे- क्षीणम् ? अम्भो ति पत्थाहिगारजाण गस्स जं सरीरयं ववगय-चुयचाविय चत्तदेहं जीवविप्पजढं सेज्जागयं वा संथारगयं निसीहियागयं वा सिद्धसिलातलगयं या पासिता णं कोइ वएन्जा अहो णं इमेणं सरीरसमुस्सएवं जिणदिणं भावेणं अम्भीणे ति पयं आचवियं पण्णवियं परूवियं सियं नियंसि उबरंसि जहा कोवितो? अयं महकुंभे आसी अयं चयमे आसो से तं जाणग सरीरदव्वीणे ||
अथ किं तद् नोआगमतो द्रव्यासोणम् ? नागमतो इम्पालीगं त्रिविधं प्रज्ञप्तं यद्यथा— ज्ञशरीरद्रव्याक्षीणं भव्यशरीरद्रव्याक्षीणं शरीर भव्य शरीर-व्यतिरिक्तं इत्या क्षीणम् ।
किं तज्ज्ञशरीरद्रव्याशरीरद्रव्यासीनम् अक्षीणम् इति पदार्थाधिकारज्ञस्य यत् शरीरकं व्यपगत च्युत-च्यावित-त्यक्तदेहं जीवविप्रहीणं शय्यागतं वा संस्तारगतं वा निषीधिकागतं वा सिद्धशिलातलगतं वा दृष्ट्वा कोऽपि वयेत् अहो मनेन शरीरसमुष्टपेय मिनविष्टेन भावेन अक्षीणम् इलि पदम् आख्यातं प्रज्ञापितं प्ररूपित वशितं निशितम् उपदशितम् यथा कष्टान्त ? अयं मधुकुम्भः आसीत् अयं घृतकुम्भः आसीत् । तदेतद् [शशरीरत्याक्षीणम् ।
अथ कि तद् भव्यशरीरद्रव्याश्रीगम ? भव्यशरीरहन्दाक्षीणमयः जीवः योनिजन्मनिष्क्रान्तः अनेन चैव आदसकेन शरीरसमुच्छ्रयेण जिनविष्टेन भावेन अक्षोणम् इति पदम् एष्यत्काले शिक्षिष्यते, न तावत शिक्षते । यथा कः दृष्टान्तः ? अयं मधुकुम्म भविष्यति, अयं घृतकुम्भः भविष्यति । मध्यशरीर
व्याक्षीणम् ।
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एक द्रव्य अक्षीण है अथवा अनेक द्रव्य अक्षीण हैं, वह एक द्रव्य अक्षीण है।
ऋजुसूत्रनय की अपेक्षा एक अनुपयुक्त व्यक्ति आगमतः एक द्रव्य अक्षीण है। भिन्नता उसे इष्ट नहीं है ।
तीन शब्दनयों [शब्द समभिरु एवंभूत] की अपेक्षा अनुपयुक्त ज्ञाता अवस्तु है क्योंकि यदि कोई है तो वह अनुपयुक्त नहीं होता । वह आगमतः द्रव्य अक्षीण है ।
६३७. वह नोआगमतः द्रव्य अक्षीण क्या है ?
नोआगमतः द्रव्य अक्षीण के तीन प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे- ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण, भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण, ज्ञशरीर भव्यशरीर व्यतिरिक्त द्रव्य अक्षीण ।
६३८ वह ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण क्या है ?
ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण-अक्षीण इस पद के अधिकार को जानने वाले व्यक्ति का जो शरीर अचेतन, प्राण से च्युत, किसी निमित्त से प्राण च्युत किया हुआ, उपचय रहित और जीव विप्रमुक्त है उसे शय्या, बिछौने, श्मशानभूमि या सिद्धशिलातल पर देखकर कोई कहे आश्चर्य है इस पौद्गलिक शरीर ने जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार "अक्षीण" इस पद का आख्यान, प्रज्ञापन प्ररूपण, दर्शन, निदर्शन और उपदर्शन किया है। जैसे कोई दृष्टान्त है? [आचार्य ने कहा- इसका दृष्टान्त यह है ] यह मधुघट था, यह घृतघट था। वह ज्ञशरीर द्रव्य अक्षीण है ।
६३९. वह भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण क्या है ?
भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण-गर्भ की पूर्णावधि से निकला हुआ जो जीव इस प्राप्त पौद्गलिक शरीर से अक्षीण इस पद को जिन द्वारा उपदिष्ट भाव के अनुसार भविष्य में सीखेगा, वर्तमान में नहीं सीखता है तब तक वह भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण है । जैसे—कोई दृष्टान्त है ? [आचार्य ने कहा इसका दृष्टांत यह है यह मधुघट होगा, यह घृतघट होगा। वह भव्यशरीर द्रव्य अक्षीण है ।
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