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प्र० ६, सू० ४०८, टि० १५
ऊपर दिए गए कोष्ठक से यह स्पष्ट हो जाता है कि समग्र लोक ५६ लम्बकोणीय - समानान्तर षट् फलक (Rectangular paralleopipel) में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक की लम्बाई-चौड़ाई भिन्न भिन्न है और ऊंचाई १ खण्डूक है । (देखें चित्र नं. १०) प्रत्येक का घनफल अपनी-अपनी लम्बाई, चौड़ाई व ऊंचाई के गुणनफल से निकाला गया है। इन सभी लम्बकोणीयसमानान्तर षट् फलक के घनफलों का योग १५२९६ घन खण्डूक होता है।
* १ खण्डूकट्ठे रज्जु है,
: १ घन- खण्डूक- ६४ घन रज्जु'
* लोक का घनफल = १५२९६ घन-खण्डूक = २३९ घन रज्जु । इस प्रकार लोक का घनफल २३९ घन रज्जु होता है ।
चित्र नं० १०
उक्त गणना के द्वारा लोक का जो घनफल निकाला गया है, वह लोक का वास्तविक घनफल नहीं है, ऐसा लगता है । ग्रन्थकारों ने इसको 'वर्गित लोकमान' ऐसा अभिधान दिया है । 'वर्गित लोकमान' से उसका वास्तविक तात्पर्य क्या है, यह कहना कठिन है । किन्तु लोक के 'घनीकृत लोकमान' की चर्चा भी उन्होंने की है और स्पष्ट रूप से लोक का घनफल ३४३ घन रज्जु स्वीकार किया है । जैसे कि लोकप्रकाश ग्रन्थ में लिखा है : "इस घनीकृत लोक के तीन सौ तैंतालीस घन-रज्जु तत्त्वज्ञों द्वारा माने गए हैं।"
अनुयोगद्वार की मलधारीया टीका के आधार पर लोक ३४३ घन रज्जु है । यह व्यवहारनय की अपेक्षा से है ।' गाणितिक प्रक्रिया से ३४३ रज्जु नहीं आते । लोक ऊंचाई में १४ रज्जु है और विविध चौड़ाई - लम्बाई वाला है। अलग-अलग खण्ड करके पुनः जोड़ने से घन चतुरस्र की आकृति का निर्माण करने का प्रयत्न किया है, जिसकी प्रत्येक भुजा ७ रज्जु है । किन्तु स्वीकार किया गया है कि लम्बाई और चौड़ाई छह रज्जु से अधिक रज्जु का असंख्यातवां भाग जितनी है और उन्हें व्यवहार में ७ रज्जु माना जा सकता है ।" व्यवहार नय की दृष्टि में कुछ न्यून वस्तु भी पूर्ण मानी जाती है। इस तरह लम्बाई और चौड़ाई सात रज्जु से कुछ न्यून होने पर भी व्यवहार नय में सम्पूर्ण सात रज्जु माने जा सकते हैं ।
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लोक का घन प्रमाण ३४३ घनरज्जु है । यह तथ्य सबको मान्य है । ३४३ का घनमूल ७ होता है । इसलिए श्रेणी का प्रमाण ७ रज्जु है । श्रेणी अंगुल को श्रेणी अंगुल से गुणित करने से ७४७ = ४९ वर्ग रज्जु प्रतर का प्रमाण होता है और ४९ वर्ग रज्जु को श्रेणी ७ से गुणित करने से लोक का प्रमाण ४९४७ = ३४३ घन रज्जु आता है। लोक के प्रमाण को संख्यात से गुणित करने से संख्यात लोक का, असंख्यात से गुणित करने पर असंख्यात लोक का और अनन्त से गुणित करने पर अनन्त लोक का प्रमाण आता है।
raft अनन्त लोक के बराबर अलोक है और उसके द्वारा जीवादि पदार्थ नहीं जाने जाते हैं तथापि यह प्रमाण इसलिए है कि इससे अलोक का स्वरूप तो ज्ञात हो जाता है ।
१. लोप्र. १२ १०६ : धनरज्जुश्चतुः षष्टिः खंडूकाः सर्वतः समाः ।
२. लो. प्र. १२।११०-११५ ।
३. लोप्र. १२।१३७ :
अस्मिन् घनीकृते लोके प्रज्ञप्ता घनरज्जवः । त्रिचत्वारिंशताद्यानि शतानि त्रीणि तात्विकैः ॥ ४.अ.प. १६० व्यवहारनयमनायाम-विवाह
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प्रत्येकं सप्तरज्जुप्रमाणो पनो जातः ।
५. वही प.
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कृतनभः
१६० बाहुल्यतस्तावत् सर्वमध्येतच्चतुरस्त्री-खण्डं कियत्यपि प्रदेशे रज्जवसंख्येयभागाधिका: षट् रज्जवो भवन्ति । व्यवहारतस्तु सर्वं सप्तरज्जुबाहल्यमिदमुच्यते । ........ तत्र सर्वत्रास्य घनीकृतलोकस्य सम्बन्धिनी सप्तरज्जुप्रमाणा सा ग्राह्या ।
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