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________________ प्र० ११, २०५६६-५७४, टि०७-६ ३२७ आगे क्रम से एक-एक अक्षर की वृद्धि होते-होते संख्यात हजार पदों की वृद्धि हो जाए उसको संघात श्रुतज्ञान कहते हैं।' पद स्यादि और तिबादि विभक्त्यन्त शब्द रूप एवं धातुरूप । कषायपाहुड में पद के तीन प्रकार बतलाए गए हैं१. अर्थ पद जितने अक्षरों से अर्थ का बोध होता है उन अक्षरों के समूह को अर्थपद कहा जाता है।' २.प्रमाण पद-श्लोक के अष्ट अक्षरात्मक समवाय को प्रमाण पद कहा जाता है। ३. मध्यम पद-सोलह सौ चौंतीस करोड तिरासी लाख सात हजार आठ सो अट्ठासी (१६३४८३०७८८८) अक्षरों के समवाय को मध्यम पद कहा जाता है।" पाद-श्लोक का चतुर्थ भाग ।' कषायपाहुड़ में निर्दिष्ट प्रमाण पद से इसकी तुलना की जा सकती है। गाथा-आर्या छन्द । श्लोक-अनुष्टुप् आदि । वेष्टक–वेढा नामक छन्द ।' नियुक्ति निर्वचन, शब्द और अर्थ की सम्यक् योजना । अनुयोगद्वार-व्याख्या के अंग सत्पद-प्ररूपण आदि अथवा उपक्रम, नय, निक्षेप आदि। उद्देश --एक दिन की वाचना, परिच्छेद, विभाग । अध्ययन- ग्रन्थ का एक विभाग। श्रुतस्कन्ध-अध्ययन-समूह। अंग-कालिकश्रुत का एक विभाग। प्राभृत-वस्तु का एक अध्याय । प्राभृतिका अध्याय का एक प्रकरण । प्राभृतप्राभृतिका-अध्याय का अवान्तर प्रकरण । वस्तु-अनेक प्राभृतों का समुदाय । गोम्मटसार में इनका विस्तृत विवेचन मिलता है। सूत्र ५७४ ८. (सूत्र ५७४) संख्या का अर्थ होता है -विभाग । एक का गणना में विभाग नहीं होता इसलिए 'एक' को गणना संख्या नहीं माना गया है। लेन देन के व्यवहार में 'एक' वस्तु प्रायः गणना का विषय नहीं बनती है। असंव्यवहार्य और अल्प होने के कारण एक (१) को गणना संख्या में नहीं गिना जाता । गणना में भेद कम से कम दो में होता है, एक में नहीं। इसलिए एक संख्या होने पर भी गणना संख्या के अन्तर्गत नहीं आती।" ___गणना संख्या में वही गिना जाता है, जिसका वर्ग करने से वृद्धि होती है। 'एक' का वर्ग करने से १४१=१ एक ही आता है अर्थात् वर्ग करने पर भी वृद्धि नहीं होती इसलिए 'एक' गणना संख्या में नहीं गिना जाता है।" १. गोजी. ३३७ : एयपदादो उरि, एगेगेणक्खरेण वड्ढतो। संखेज्जसहस्सपदे, उड्ढे संघादणाम सुदं । २. अमवृ. प. २१६ : सुप्तिङन्तानि समयप्रसिद्धानि वा संख्ये यानि पदानि । ३. कपा. पृ. ९१ : जत्तिएहि अक्खरेहि अत्योवलद्धी होदि तेसिमक्खराणां कलावो अत्थपदं णाम । ४. वही, पमाणपदं अटक्खरनिप्पण्णं । ५. (क) वही, पृ. ९२ : सोलहसयचोत्तीसकोडि-तियासी दिलक्ख-अट्ठहत्तरिसय-अट्ठासी दिअक्खरेहि एग मज्झिमपदं होदि। (ख) गोजी. ३३६ । ६. अमव. प. २१६ : गाथदिचतुर्थांशरूपाः संख्येयाः पादाः । ७. वही, छन्दोविशेषरूपाः संख्येया: वेष्टकाः । ८. वही, व्याख्योपायभूतानि सत्पदप्ररूपणतादीन्युपक्रमादीनि वा संख्येयान्यनुयोगद्वाराणि । ९. गोजी. ३४०-३४४ ॥ १०. (क) अहाव. पृ. १०९: एकत्वसंख्याविषयत्वेऽपि वा प्रायोऽसंव्यवहार्यत्वादल्पत्वाद् आह द्विप्रभूति: संख्या। (ख) अमव. प. २१७॥ ११. लोप्र. ४१३१०-३१२ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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