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________________ ३२६ २. बद्धायुष्क जिस जीव ने शंख (द्वीन्द्रिय जंतु ) का आयुष्य बांध लिया है पर अभी उस जीवन में उत्पन्न नहीं हुआ है। वह बद्धायुष्क कहलाता है । उसकी उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग है। इसका तात्पर्य है कि वर्तमान आयुष्य का एक तिहाई भाग शेष रहता है। तब आयुष्य का बंध होता है इसलिए उत्कृष्ट स्थिति पूर्वकोटि त्रिभाग बतलाई गई है । २. अभिमुखनामगोत्र शंख भव प्राप्त जीवों के जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त पश्चात् द्वीन्द्रिय जाति नाम और नीच गोत्र कर्म उदय में आते हैं। जब तक इनका उदय नहीं होता है, वे जीव अभिमुखनामगोत्र कहलाते हैं । अभिमुखनामगोत्रता भावी जन्म की अत्यन्त निकटता में होती है, इसलिए इसकी स्थिति जघन्यतः एक समय और उत्कृष्टतः अन्तर्मुहूर्त्त ग्रहण की गई है। नैगमनय और व्यवहारनय लोक व्यवहार को मान्य करते हैं तथा अशुद्ध संग्रहनय भी नैगमनय और व्यवहारनय का अनुसरण करता है इसलिए ये तीनों प्रकार के शंख को मान्य करते हैं । आर्य मंगु ने भी तीन प्रकार के शंख माने हैं। ऋजुसूत्रनय के अभिप्राय से अतिप्रसंग का निवारण करने के लिए आर्य समुद्र दो प्रकार के शंख को मान्य करते हैं। तीनों शब्द नय शुद्धतर होने के कारण केवल एक ही शंख को स्वीकृत करते हैं, आर्य सुहस्ती का भी यही मत है । ' ७. जैसे तुम हो वैसे ही हम थे [जह तुम्भे तह अम्हे ] ८. सूत्र ५६९ उक्त तथ्य राजस्थानी भाषा में निम्न निर्दिष्ट रूप में प्रतिपादित है पान पडता देख ने हंसी ज्यूं कुंपलिया । J मो बीती तो बीतसी, धीरी बापड़ियां ॥ सूत्र ५७० - ५७२ (सूत्र ५७०-५७२) परिमाण संख्या में कालिकश्रुत और दृष्टिवादश्रुत का परिमाण बताया गया है। कालिकत में ग्रन्थ विभाग के लिए उद्देशक, अध्ययन और श्रुतस्कन्ध बतलाए गए हैं वैसे ही दृष्टिवादश्रुत में ग्रन्थ विभाग के लिए प्राभूत, प्राकृतिका, प्राभृतप्राभृतिका और वस्तु बतलाए गए है। कर्मग्रन्थ और गोम्मटसार में श्रुतज्ञान के २० भेद बतलाए गए हैं। उनमें दस भेद इस प्रकार हैं १ पर्याय २. अक्षर ३ पद ४. संघात ५. प्रतिपत्ति ६. अनुयोग ७. प्राभृत ८. प्राभृतप्राभृत ९ वस्तु १०. पूर्व । इन दस भेदों के साथ 'समास' पद जोड़ने पर पर्याय समास आदि दस भेद और बन जाते हैं । शब्द विमर्श अणुओगदाराई पर्यव - पर्याय, धर्मं । प्रत्येक अक्षर के अनन्त पर्याय होते हैं । नन्दी में आचारांग आदि के अनन्त पर्याय बतलाए गए हैं। नन्दी चूर्णिकार ने अकार के स्वपर्याय अठारह बतलाए हैं और परपर्याय अनन्त बतलाए हैं । * अक्षर-अक्षरों की संख्या चौसठ हैं।" संघात - चूर्णि और हरिभद्र की वृत्ति में संघात की कोई व्याख्या उपलब्ध नहीं है। हेमचन्द्र ने इसका अर्थ इस प्रकार किया है दो, तीन, चार आदि अक्षरों के संयोग से निष्पन्न शब्द । गोम्मटसार में संघात की विस्तृत जानकारी मिलती है एक पद के पर्य १. बृभा. १, पृ. ४४ । २. (क) कग्रं. १, गा. ७ : पज्जप अश्रपयसंचाया पडिवति तह व अशुभगो । पाहुड पाहुडपाहुड वत्थू पुग्वा य ससमासा ॥ (ख) गोजी. ३१७,३१८ । ३. अमवृ. प. २१६ : पर्यवा: पर्याया धर्मा इति यावत् तद्रूपा Jain Education International ४. नसु. पृ. ५४,५५ एत्थ अकारस्स अकारजाती सामण्णतो सपज्जाया अट्ठारस, सेसा परपज्जाया । ५. कपा. पृ. ८९ : सुदणाणे पादेवकवण्णसमूहो चउसट्ठी । ६. अमवृ. प. २१६ : द्वाद्यक्षरसंयोगरूपाः संघाताः । संख्येयाः For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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