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अणुओगदाराई
विदेश जाता है उसे सार्थवाह कहते है।'
वृत्ति के अनुसार वह राजा के द्वारा मान्यता प्राप्त, प्रसिद्ध और मार्ग में दीन एवं अनाथ व्यक्तियों का सहायक होता
'है।'
यशस्तिलक में वैश्य के लिए वैश्य, वणिक्, श्रेष्ठी और सार्थवाह शब्द आए हैं। सार्थवाह अपने देश में व्यापार करते ही थे। नौका द्वारा समुद्र पारकर विदेशों में भी जाते थे । श्रेष्ठ व्यापारी को राज्य की ओर से राज्यश्रेष्ठी पद दिया जाता था ।
प्राचीन समय में यात्रा के साधन आधुनिक साधनों की भांति द्रुतगामी नहीं थे। दूर की यात्रा में समय अधिक लगता और चोरी, बटमारी आदि का भी भय रहता था । अकेला व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से घबरा जाता था। इसलिए सामूहिक यात्रा का सूत्रपात किया गया। एक साथ चलने वाले व्यापारियों के समूह के लिए सार्थ शब्द का उपयोग हुआ ।
निशीथचूर्णि के अनुसार राजा के द्वारा अनुज्ञात सार्थ का वहन करनेवाले वणिक् का नाम सार्थवाह है। सार्थवाह केवल नाम मात्र का नेता नहीं होता था। सार्थ की समग्र व्यवस्था का दायित्व उसी पर होता था । कुशल सार्थवाह अपने साथियों के लिए हर प्रकार की सुविधा जुटाता था। किसी-किसी सार्थवाह की मूर्खता से समग्र सार्थ को भयंकर कष्टों का सामना करना पड़ता था । जैनागमों में, बौद्ध जातकों में और महाभारत आदि में सार्थ और सार्थवाह के सम्बन्ध में अनेक प्रसंग वर्णित है। इन प्रसंगों में तत्कालीन व्यापारविधियों के साथ भारतीय पथ पद्धतियों के बारे में भी विस्तृत जानकारी मिलती है।
व्यापारी लोग अपनी-अपनी सुविधा के अनुसार भिन्न-भिन्न प्रकार से यात्रा करते थे। उनके साथ पांच प्रकार के होते थे१. भंडी सार्थ - गाड़ी आदि से माल ढोने वाले व्यक्ति ।
२. बहलिका सार्थ - इस सार्थ में ऊंट, बैल आदि होते थे ।
३. भारवह सार्थ -- इस सार्थ में मनुष्य स्वयं पोटली आदि में
अपना माल ढोते थे ।
४. औदरिक सार्थ - इस सार्थ के व्यक्ति जहां जाते, वहीं अपने रुपये आदि छोड़ देते थे । व्यापारार्थ इधर उधर घूमकर
पुनः वहीं आ जाते । अपने सम्पूर्ण सम्बल के साथ घूमने वाले सार्थ भी औदरिक कहलाते थे ।
५. कार्पटिक सार्थ - इस सार्थ में भिक्षावर मुनियों की अधिकता होती थी।"
वैदिककाल में सार्थवाह बोझा ढोने के लिए बैल, घोड़ा, गधा, ऊंट और कुत्ते का उपयोग करते थे । '
सुविमलाए
चूर्णि में सुविमलाए पाठ व्याख्यात नहीं है। हेमचन्द्र और हरिभद्र की वृत्ति में इसकी व्याख्या है।" फुल्ल-कमल-कोमलुमिनियम
हरिभद्र ने कमल का अर्थ आरण्यक पशु किया है ।" हेमचन्द्र ने इसका अर्थ हरिण किया है।'
कोमल शब्द यहां विशेष अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। पूर्णिकार ने कोमल, उम्मीलित का अर्थ अर्धविकसित किया है।" वृत्ति इव में कोमल का अर्थ अकठोर किया गया है।" पर चूर्णि का अर्थ ही अधिक प्रासंगिक लगता है क्योंकि कमल सूर्य विकासी होता है। उषाकाल में वह पूर्ण विकसित नहीं होता, पर विकसित होना शुरू हो जाता है इसीलिए यहां उसकी अर्धविकसित अवस्था वर्णित है ।
१. (क) अधू. पू. ११ रायाण्यातो चतुव्विहं दबिणजायं,
गणिमधरिममेज्नपरि
घेतुं लाभाची विसयंतर
गामी सत्यमाह ।
(ख) अमवृ. प., २१ ।
२. अमवृ. प. २१ :
नियम पसिद्धी दानाहान बल पये।
सो सत्थवाह नाम धणोव्व लोए समुव्वहई ॥ ३. यसअ पृ. ७ ।
४. निघू. पू. २६७ जी वाणिओ रातीहि अन्यगुणतो सत्यं वाहेति सो सत्यवाहो ।
५. निचू. ४, पृ. ११० : सो सत्थो पंचविहो मंडि त्ति गंडी, बहिलगा उट्टबलिद्दादि, भारवहा पोट्टलिया वाहगा, उदरिया णाम जहं गता तह चैव रूवगादी छोढुं समुद्दिसंति पच्छा
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गम्मति, अहवा गहिय संबला उदरिया, कप्पडिया भिक्खायरा ।
६. वैसास. पू. ५७४ ।
७. (क) अहा. पृ. १६
काल भाविना
मानवानां तमावश्यककालमाह ।
(ख) अमवृ. प. २१ ।
८. अहाव. पृ. १६ : कमलस्त्वारण्यः पशुविशेषः ।
९. अमवृ. प. २१ : कमलो हरिणविशेषः ।
सुविमलायामित्यादिनोत्तरोत्तरविशेषणकलापेनास्तोत
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१०. अचू पृ. ११ : कोमला उम्मिलिया- अद्धविकसिता य । ११. (क) अहावू. पृ. १६ : कोमलं - अकठोरं । (ख) अमवृ. प. २१ ।
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