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________________ प्र० १० १५-२१, दि० १२ यथा पाण्डर चूर्णिकार और वृत्तिकार हरिभद्र ने अहपंडुरे में अह को अलग शब्द मानकर अथ आनन्तर्ये इस रूप में व्याख्या की है । ' हमने इसे यथापांडुर एक शब्द मानकर इसका अर्थ पीत आभावाला अरुणिम किया है। मुखधावन आदि मुंह धोना, दांत प्रक्षालना, बालों में तेल लगाना, कंघी करना, सरसों और दूर्वा को सिर पर बिखेरना ( उवारणा) दर्पण में मुंह देखना, वस्त्रों में धूप देना, फूलमाला आदि से सिर या अन्य अवयव को सजाना, सुगंधित द्रव्य का उपयोग करना, तांबूल आदि को काम में लेना या स्वच्छ वस्त्र पहनना ये सब प्रभात कर्म हैं। प्रातःकाल ये अवश्य किए जाते हैं इसलिए ये आवश्यक हैं। ये सब लौकिक कार्य हैं अतः लौकिक द्रव्यावश्यक हैं। सभा अथवा प्रपा चूर्णिकार और टीकाकार हेमचन्द्र ने सभा का अर्थ बताते हुए लिखा है कि जहां महाभारत आदि का व्याख्यान करने के लिए लोग इकट्ठे होते हैं वह स्थान सभा है।' यहां सभा का अर्थ ग्राम सभा, पंचायत आदि होना चाहिए। प्रपा का अर्थ है प्याऊ । लोगों के एकत्रित होने का स्थान । प्रपा का प्रयोग आधुनिक काफी हाऊस, रेस्टोरेंट या हॉटल जैसे किसी स्थान के लिए हुआ है, ऐसी संभावना की जा सकती है । सूत्र २० चरक जो भिक्षा के लिए घूमते हैं वे चरक कहलाते हैं। फटे पुराने चीवरों - वस्त्र खण्डों को जोड़कर बनाए गए परिधान को पहनने वाले या चीरमय भण्ड उपकरण रखने वाले संन्यासी ।" चीरिक बौद्ध भिक्षुओं में मार्ग में गिरे हुए वस्त्र खण्डों को जोड़कर पहनने की परम्परा थी। वर्तमान में इस परम्परा में परिष्कार करके नए वस्त्रों को फाड़कर उनके खण्ड किए जाते हैं फिर उन्हें जोड़कर परिधान तैयार किया जाता है। धर्मडिक चमड़े के परिधान पहनने वाले अथवा सभी उपकरण चमड़े के रखने वाले संन्यासी ।' भिक्षाजीवी संन्यासी भिक्खोंड या भिच्छंड कहलाते थे । बौद्ध भिक्षुओं के लिए इस शब्द का प्रयोग किया गया है। मिक्षाजीवी शेव शरीर पर भस्म लगाने वाले संन्यासी ।" १. ( क ) अजू. पृ. ११ : अथेत्यनन्तरं । (ख) अहावृ. पृ. १६ । २. (क) असू. पू. १२ समा जाय भारहाइपाइकाहि जय अच्छती । ३३ (ख) अमवृ. प. २२ । ३. अचू. पृ. १२ : पवा जत्य उदगं दिज्जति । ४. ( क ) अचू. पृ. १२ : भिक्खं हिंडंति ते चरगा । (ख) अहावृ. पृ. १७ । (ग) अमवृ. प. २२ । ५. (क) अजू. पृ. १२ चीरपरिहाणा चीरपाउरगा चीरमंडो वकरणा य चीरिया । (ख) अहाव. पृ. १७ । (ग) अम. प. २२ रम्यापतितवीरपरिधानारची रिका Jain Education International अथवा येषां चीरमयमेव सर्वमुपकरणं ते चोरिकाः । ६. (क) अचू पृ. १२ : चम्मपरिहाणा चम्मपाउरणा चम्म टोकरणा यचम्महिता चम्मचंडिता था। (ख) अहावृ. पृ. १७ । (ग) अमवृ. प. २२ ॥ ७. (क) अचू. पृ. १२ : भिक्खं उंडेति भिक्षाभोजना । (ख) अहावृ. पृ. १७ : भिक्षोण्डा: भिक्षाभोजिनः सुगतशासनस्था इत्यन्ये । (ग) अमवृ. प. २२ ॥ ८. (क) अचू. पृ. १२ : पंडुरंगा सारक्खा । (ख) महायू. पू. १७ पांडुरङ्गाः बौता । (ग) अमवृ. प. २२ : पांडुराङ्गा - भस्मोद्धूलितगात्राः । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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