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अणुओगदाराई
गौतम
जो संन्यासी बैलों को कौड़ियों व मालाओं से सजाते हैं, नमस्कार करना सिखाते हैं और उनके कारण से भिक्षा प्राप्त करते हैं, वे गौतम कहलाते हैं। गौव्रती
___गाय की चर्या का अनुसरण करने वाले संन्यासी । ये तिर्यंचों, पशुओं के साथ रहने की भावना से गाय के साथ चलते हैं, रहते हैं, बैठते हैं और उन्हीं की तरह फल, फूल आदि खाते हैं।'
राजा दिलीप की गौभक्ति प्रसिद्ध है । वह नन्दिनी गाय के प्रति इतना समर्पित था कि वह ठहरती तो ठहरता, चलती तो चलता, वह बैठती तो बैठता, वह पानी पीती तो पानी पीता । एक वाक्य में कहें तो वह छाया की तरह अनुगमन करता।' गृहधर्मी
गृहस्थ धर्म को श्रेयस्कर मानकर के उसका पालन करने वाला।' इस विचारधारा के लोगों का यह अभिमत है
गृहस्थ धर्म के समान कोई धर्म न हुआ है और न होगा। इसका पालन करने वाले ही धीर होते हैं । वे ही लोग संन्यास को स्वीकार करते हैं जो कायर होते है। धर्मचिन्तक
याज्ञवल्क्य गौतम आदि ऋषियों के द्वारा निर्मित धर्म-संहिताओं पर चिन्तन करने वाले और उन्हीं को आधार मानकर व्यवहार करने वाले। अविरुद्ध
वैनयिक मत में आस्था रखने वाले । इस मत के अनुसार देव, राजा, माता, पशु आदि सभी प्राणियों के प्रति समान रूप से विनय रखना चाहिए। विनय की प्रमुखता के कारण ही इस दर्शन की पहचान विनयवादी दर्शन के रूप में हुई।
चूर्णिकार ने अविरुद्ध का मूल अर्थ वैनयिक किया है पर वैकल्पिक अर्थ में उन्होंने उदाहरण के रूप में वैश्यायन पुत्र को निर्दिष्ट किया है । आचार्य हरिभद्र ने भी वैश्यायन पुत्र का उल्लेख किया है।
सूत्रकृतांग की भूमिका में विनयवादी दर्शन के वशिष्ठ, पराशर आदि ११ आचार्यों का उल्लेख किया गया है।
विरुद्ध
अक्रियावादी दर्शन में आस्था रखने वाले । चर्णिकार के अनुसार ये सब क्रियावादियों, अज्ञानवादियों और विनयवादियों से विरुद्ध होने के कारण विरुद्ध कहलाये।
आचार्य हरिभद्र के अनुसार ये परलोक को अस्वीकार करते थे और सब वादियों के विरुद्ध रहते थे।" १. (क) अचू. पृ. १२ : पायवडणादिविविहसिक्खाइ बइल्लं
६. (क) अचू. पृ. १२ : गौतमयाज्ञवल्कप्रभृतिभिः ऋषिभिर्या सिक्खावंतो तं चैव पुरो का कण्णभिक्खादि अडतो
धर्मसंहिता प्रणिता तं चिन्तयंतः ताभिर्व्यवहरतो गोतमा। (ख) अहावृ. पृ. १७ ।
धर्मचितगा भवंति। (ग) अमवृ. प. २२ ।
(ख) अहावृ पृ.१७। २. (क) अचू. पृ. १२ : गावीहिं समं गच्छंति......."गोण इव
(ग) अमवृ. प. २३ । भक्खयंतो गोव्वतिया।
(क) अचू. पृ. १२ : अविरुद्धा वेणइया वा हत्थियार(ख) अहावृ. पृ. १७।
पासंडत्था जहा वेसियायणपुत्तो। (ग) अमव. प. २२,२३ ।
(ख) अहाव. पृ. १७॥ ३. र. २०६।
८. सूभू. पृ. २३। ४. अचू. पृ. १२ : गृहधर्म एव श्रेयान् अतो गृहधर्मे स्थिता
९. अचू. पृ. १२ : विरुद्धा अकिरियावायद्विता सम्वकिरियागृहधम्मत्था।
वादी अण्णाणियवेणईएहि सह विरुद्धा। (ख) अहावृ.पृ. १७।
१०. अहाव. पृ. १७ : परलोकानभ्युपगमात्सर्ववादिभ्य एव ५. अमवृ. प. २३:
विरुद्धा इति । गृहाश्रमसमोधर्मो, न भूतो न भविष्यति । तं पालयन्ति ते धीराः, क्लीबा पाषण्डमाश्रिता ।।
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