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प्र० १, सू० १५-२१, टि०१२
मलधारिया वृत्ति के अनुसार ये पुण्य-पाप आदि का अस्वीकार करने के कारण विरुद्ध कहलाये।' वृद्धधावक
वृद्धश्रावक इस शब्द में दो पद हैं-वृद्ध और श्रावक । वृद्ध का अर्थ है तापस और श्रावक का अर्थ है ब्राह्मण । तापस को वृद्ध मानने का हेतु इस प्रकार है-समग्र तीथिकों की उत्पत्ति भगवान् ऋषभ की प्रव्रज्या के बाद हुई। उनमें सबसे पहले तापसों का प्रादुर्भाव हुआ इसलिए वे वृद्ध कहलाए । अथवा तापस लोग प्रायः वृद्धावस्था में संन्यास स्वीकार करते थे, इस कारण वे वृद्ध कहलाए।
ब्राह्मण को श्रावक कहने का हेतु यह है-सम्राट भरत आदि के समय में जो श्रावक थे वे कालान्तर में ब्राह्मण कहलाए।' कुछ आचार्यों ने वृद्धश्रावक शब्द को एक ही पद मानकर ब्राह्मण का वाचक बतलाया है।'
वृद्ध श्रावक एक शब्द हो या दो, संभव नहीं लगता कि इससे जैन-परम्परा से सम्बन्धित श्रावकों का ग्रहण किया गया है। कुप्रावनिक द्रव्यावश्यक के सन्दर्भ में चरक, चीरिक आदि जितने संन्यासियों का उल्लेख हुआ है वे सब अन्यतीथिक होने चाहिए क्योंकि इसी सूत्र के उत्तरार्द्ध में इनकी जिन क्रियाओं का वर्णन किया गया है वे जैनदर्शन से सम्मत नहीं हैं। अतः वृद्धश्रावक शब्द का सम्बन्ध तापसों के किसी सम्प्रदाय से होना चाहिए।
औपपातिक (सू०२८) ज्ञाताधर्मकथा (१।१५।६) एवं निशीथभाष्य चूणि (भाग २ पृ० ११८) में भी वृद्धश्रावक शब्द प्रयुक्त हुआ है। इससे इतना तो निश्चित हो जाता है कि यह शब्द उस समय की किसी विशिष्ट परम्परा का वाहक है। इन्द्र, कातिकेय ......"कोदृक्रिया
भारतीय समाज अनेक देवों का उपासक रहा है। अन्य लोग अपने इष्ट देव को एक ही रूप में देखते हैं पर भारतीयों में बहुदेववाद का प्रचलन रहा है। यहां हर व्यक्ति को यह स्वतन्त्रता प्राप्त है कि वह अपनी आस्था को जहां चाहे टिका सकता है। उस समय इन्द्र, स्कन्द, रुद्र, शिव, वैश्रमण, देव, नाग, यक्ष, भूत, मुकुन्द, आर्या और कोट्टक्रिया आदि ख्यातिप्राप्त देव थे। उनकी उपासना करने वाले को अभिलषित अर्थ की प्राप्ति होती है-इस मान्यता का प्रसार होने से प्रायः साधारण लोग अभीष्ट सिद्धि के लिए इनकी पूजा किया करते थे ।
समय-समय पर राजाओं की ओर से इन्द्रमहोत्सव आदि महोत्सव भी बड़ी धूमधाम से मनाए जाते थे। श्रावस्ती नगरी में विशेष अवसरों पर इन्द्रमहोत्सव, रुद्रमहोत्सव, मुकुन्दमहोत्सव, शिवमहोत्सव, वैश्रमणमहोत्सव, नागमहोत्सव, यक्षमहोत्सव, गिरिमहोत्सव, दरीमहोत्सव, चैत्यमहोत्सव, वृक्षमहोत्सव, भूतमहोत्सव, स्तूपमहोत्सव, अगड (कूप) महोत्सव, नदीमहोत्सव, सागरमहोत्सव मनाने की परम्परा थी।
इस प्रकरण के आधार पर पता चलता है कि इन्द्र, रुद्र आदि की तरह स्तूप, चैत्य, वृक्ष, पर्वत, गुफा, नदी, समुद्र आदि प्राकृतिक तत्त्वों की भी देवताओं की तरह पूजा होती थी।
इन्द्रमहोत्सव, स्कन्दमहोत्सव, यक्षमहोत्सव और भूतमहोत्सव को महा महोत्सव माना जाता था। उस समय मुनि के लिए स्वाध्याय निषिद्ध था।'
आषाढ़ी पूर्णिमा को इन्द्रमहोत्सव होता था। लाट देश में यह महोत्सव श्रावण मास की पूर्णिमा को मनाया जाता था। आश्विन पूर्णिमा को स्कन्दमहोत्सव, कार्तिक पूर्णिमा को यक्षमहोत्सव और चैत्र पूर्णिमा को भूतमहोत्सव मनाने की परम्परा रही है। निशीथ चुणि में कोंकण आदि देशों में प्रति सन्ध्या 'गिरि यज्ञ' नामक उत्सव मनाने का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार १, अमवृ. प. २३ : पुण्यपापपरलोकानभ्युपगमपरा अक्रिया
४. (क) अचू. पृ. १२ : अण्णे भणंति-वुड्ढा सावगा बंभणा वादिनो विरुद्धाः।
इत्यर्थः। २. (क) अचू. पृ. १२ : उस्सणं वुड्ढवते पव्वयंतीत्ति तावसा
(ख) अहावृ. पृ. १७। वुड्ढा भणिता।
(ग) अमवृ. प. २३। (ख) अहावृ. पृ. १७ : वृद्धाः तापसाः प्रथमसमुत्पन्नत्वात्
५. उसुरा. ६८८। प्रायो वृद्धकाल एवं बीक्षाप्रतिपत्तेः श्रावका
६. नसुनि. १९११ : जे भिक्खू चउसु महामहेसु सज्झायं धिग्वर्णाः।
करेति, करेंतं वा सातिज्जइ, तं जहा-इंदमहे, खंधमहे, (ग) अमवृ. प. २३।
जक्खमहे, भूतमहे। ३. अमवृ. प. २३ : श्रावका-ब्राह्मणाः प्रथमं भरताविकाले
७. जैआसागु. पृ. ५३ । श्रावकाणामेव सतां पश्चाद् ब्राह्मणत्वभावाद् ।
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