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आमुख
भावप्रमाण के प्रकरण में आर्यरक्षितसूरि ने प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और आगम इस प्रमाण चतुष्टयी का निरूपण किया है। माना जाता है कि आर्यरक्षित जैन मुनि बनने से पहले नैयायिक दर्शन की परम्परा के पण्डित थे। इसलिए न्याय-सम्मत प्रमाण चतुष्टयी का प्रस्तुत आगम में समावेश कर दिया। नैयायिक दर्शन के आधुनिक ग्रन्थों से यह प्रतिपादन कुछ भिन्न है। पण्डित दलसुखभाई मालवणिया ने इसका तुलनात्मक वर्णन किया है। इस प्रकरण के विवेचन में इसका विमर्श किया गया है।
सूत्रकार ने लौकिक आगमों की सूची प्रस्तुत की है । नन्दी में भी यह सूची प्राप्त है। संभावना की जा सकती है कि नन्दीकार ने अनुयोगद्वार की सूची का अनुसरण किया है। नय को समझने के लिए वसति, प्रस्थक और प्रदेश ये तीन दृष्टान्त दिए गए हैं। यह नय वर्णन अन्यत्र आगम साहित्य में उपलब्ध नहीं होता है।
संख्या संख्येय, असंख्येय और अनन्त की विशिष्ट जानकारी भी इसमें उपलब्ध है। इस प्रकार प्रमाण निरूपण की दृष्टि से यह प्रकरण बहुत महत्त्वपूर्ण है।
१. आयुजैद. पृ. १३६-१५६ ।
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