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सम्पादकीय
अनुयोगद्वार का मूल पाठ 'नवसुत्ताणि' में प्रकाशित है। प्रस्तुत संस्करण अर्थबोध कराने वाला है। इसमें संस्कृत छाया के अतिरिक्त अनुवाद, टिप्पण, परिशिष्ट आदि की समायोजना है। आचाराङ्ग आदि में जैसे अध्ययन आदि का विभाग है वैसे प्रस्तुत आगम में कोई विभाग नहीं है । अध्ययन की सुविधा की दृष्टि से हमने इसे तेरह प्रकरणों में विभक्त किया है। प्रत्येक प्रकरण के पूर्व एक आमुख है। इसके सात परिशिष्ट हैं।
अनुयोगद्वार का कोई स्वतन्त्र विषय नहीं है । वह अन्य आगमों की व्याख्यापद्धति प्रस्तुत करता है। वस्तुतः यह दृष्टिवाद अथवा चौदह पूर्वो के अध्ययन की कुंजी है। आर्यरक्षित ने इसकी रचना संभवतः पूर्वो के अध्ययन की पद्धति के रूप में की थी। पर्व साहित्य आज विलुप्त है फिर भी अनुयोगद्वार के आधार पर उसके कुछ रहस्य जाने जा सकते हैं। आगम साहित्य में व्याख्यापद्धति की दृष्टि से इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है। प्रस्तुत संस्करण में स्थान-स्थान पर इसकी अनुभूति हो जाती है। सहयोगानुभूति
जैन परम्परा में वाचना का इतिहास बहुत प्राचीन है। आज से १५०० वर्ष पूर्व तक आगम की चार वाचनाएं हो चकी हैं। देवद्धिगणि के बाद कोई सुनियोजित आगम वाचना नहीं हुई। उनके वाचना-काल में जो आगम लिखे गए थे, वे इस लम्बी अवधि में बहुत ही अव्यवस्थित हो गए । उनकी पुनर्व्यवस्था के लिए आज फिर एक सुनियोजित वाचना की अपेक्षा थी। गणाधिपति पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी ने सुनियोजित सामूहिक वाचना के लिए प्रयत्न भी किया था, परन्तु वह पूर्ण नहीं हो सका। अन्ततः हम इसी निष्कर्ष पर पहुंचे कि हमारी वाचना अनुसन्धानपूर्ण, तटस्थ दृष्टि-समन्वित तथा सपरिश्रम होगी, तो वह अपने आप सामूहिक हो जाएगी। इसी निर्णय के आधार पर हमारा यह आगम-वाचना का कार्य प्रारम्भ हुआ।
हमारी इस व्यवस्था के प्रमुख गणाधिपति श्री तुलसी हैं। वाचना का अर्थ अध्यापन है। हमारी इस प्रवृत्ति में अध्यापन कर्म के अनेक अंग हैं--पाठ का अनुसन्धान, भाषान्तरण, समीक्षात्मक अध्ययन आदि-आदि। इन सभी प्रवृत्तियों में गुरुदेव का हमें सक्रिय योग, मार्गदर्शन और प्रोत्साहन प्राप्त है। यही हमारा इस गुरुतर कार्य में प्रवृत्त होने का शक्ति-बीज है।
प्रस्तुत आगम का कार्य दीर्घकाल तक विश्राम करता रहा है। इसका कार्य वि० सं० २०३५ में सम्पन्न हो गया था। साध्वीप्रमुखा कनकप्रभाजी ने अनुवाद और टिप्पणलेखन का कार्य संपन्न किया। पूज्य गुरुदेव श्री तुलसी की सन्निधि में उस कार्य का निरीक्षण किया गया। फिर अन्यान्य कार्यों की व्यस्तता के कारण इस कार्य को विराम दे दिया गया। श्रीडूंगरगढ़ के चातुर्मास प्रवास (वि० सं० २०४५) में इसका पुननिरीक्षण किया गया। कुछ टिप्पण और जोड़े गए। वि० सं० २०५० में हमने अनुयोगद्वार का वाचन शुरू करवाया। उस समय कुछ परिवर्धन की अपेक्षा का अनुभव हुआ। फलतः संवर्धन का कार्य शुरू हुआ। उस कार्य में साध्वी श्रुतयशा, साध्वी मुदितयशा और साध्वी विश्रुतविभा ने काफी श्रम किया। मुनि हीरालालजी की संलग्नता भी बहुत उपयोगी रही। मुनि श्रीचन्दजी का भी इस कार्य में योग रहा। मुनि धर्मेशजी ने भी कुछ रेखाचित्र तैयार किए। इस प्रकार अनेक व्यक्तियों का श्रम कार्य की सम्पन्नता का हेतु बना।
श्रीमज्जयाचार्य द्वारा विरचित अनुयोगद्वार की जोड़ परिशिष्ट में दी गई है। साध्वी जिनप्रभा का जोड़ को व्यवस्थित करने में योग रहा है।
इस प्रकार प्रस्तुत ग्रन्थ में अनेक साधुओं और साध्वियों का योग है। गणाधिपति गुरुदेव श्री तुलसी के वरदहस्त की छाया में बैठकर कार्य करने वाले सब संभागी हैं, फिर भी मैं उन सब साधु-साध्वियों के प्रति सद्भावना व्यक्त करता हूं जिनका इस कार्य में योग है और आशा करता हूं कि वे इस महान कार्य में और अधिक दक्षता प्राप्त करेंगे।
आचार्य महाप्रज्ञ
१८ जुलाई, १९९६ जैन विश्व भारती,
लाडनूं
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