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________________ भूमिका अनुयोगद्वार और नन्दी सूत्र जैनागमों में सबसे अर्वाचीन हैं। इनसे पहले आगमों का वर्गीकरण पूर्व और अङ्ग' तथा अङ्ग प्रविष्ट और अङ्गवा' के रूप में हुआ नदी में भी अप्रविष्ट और बाह्य का वर्गीकरण ही स्वीकार हुआ है।' नन्दी में पुरुष का विश्लेषण करते हुए लिखा गया है- बुतपुरुष के बारह अ है दो पैर दो जमा दो ऊ दो गात्रा, दो भुजा, ग्रीवा और सिर इस श्रुतपुरुष के अङ्गभाग में स्थित श्रुत अङ्गप्रविष्ट है और श्रुतपुरुष के उपाङ्ग में स्थित श्रुत अङ्गवा है। निर्मुक्तिकार ने अव अवाह्य के वर्गीकरण की दो कसौटियां बतलाई है १. गणधर कृत आगम अङ्गप्रविष्ट हैं और स्थविर कृत आगम अङ्गबाह्य हैं। प्रविष्ट है और अनियत त अव है। २. अङ्गबाह्य श्रुत के दो भेद हैं-- आवश्यक और आवश्यकव्यतिरिक्त । आवश्यकव्यतिरिक्त के दो भेद हैं-कालिक और उत्कालिक । विक्रम की ११वीं शताब्दी में ४५ सूत्रों का उल्लेख मिलता है पर मूलसूत्रों का विभाजन उस समय तक नहीं हुआ था । मूलसूत्र वर्ग की स्थापना १४वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में हुई, ऐसा संभव लगता है। क्योंकि १४वीं शताब्दी के प्रभावक चरित में आगम सूत्रों का वर्गीकरण अङ्ग, उपाङ्ग, मूल और छेद इस रूप में हुआ है। फिर भी अनुयोगद्वार और नन्दी को इन चार विभागों में से किसी भी विभाग के अन्तर्गत नहीं लिया गया । १६वीं शताब्दी में जब ३२ सूत्रों की मान्यता स्थिर हुई, संभव है तब से इनको मूलसूत्रों में परिगणित किया गया। तब से आज तक स्थानकवासी और तेरापंथ सम्प्रदाय में इनको मूलसूत्र माना जाता है । मूलसूत्रों के बारे में विभिन्न विद्वानों के विभिन्न अभिमत हैं। उनमें उपाध्याय समयसुन्दर, भावप्रभसूरि, प्रोफेसर बेबर, प्रो० बूलर, डॉ० सरपेन्टियर, डॉ० विन्टर नित्स, ग्यारीनो, सुबिंग तथा प्रोफेसर हीरालाल कापडिया आदि विद्वानों के विचार जानने के लिए "दसवेआलियं तह उत्तरज्झयणाणि" की भूमिका द्रष्टव्य है। इन विद्वानों के अभिमत को पढ़ने से स्पष्ट होता है कि नन्दी और अनुयोगद्वार को स्थानकवासी और तेरापंथ के अतिरिक्त किसी ने मूलसूत्र नहीं माना है। चूर्णिकाल में मूलसूत्र आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग 1 तदनन्तर दशवैकालिक तथा उत्तराध्ययन को मूलसूत्रों का स्थान मिला और बाद में आवश्यक, पिण्डनिर्युक्ति, ओघनिर्मुक्ति आदि को मूलसूत्रों की मान्यता प्राप्त हुई। क्योंकि मूल का अर्थ है मुनिचर्या के प्रारम्भ में सहायक बनना अथवा जिन सूत्रों से आगमों का अध्ययन प्रारम्भ किया जाता है वे मूलसूत्र हैं । पाश्चात्य विद्वान् सुबिंग ने भी मूलसूत्र की यही परिभाषा दी है। इस दृष्टि से अनुयोगद्वार और नन्दी को मूलसूत्र नहीं मान सकते । "श्री आगमपुरुष नु रहस्य" पृष्ठ ५० के सामने वाले (श्री उदयपुर मेवाड़ के हस्तलिखित भण्डार से प्राप्त प्राचीन आगम पुरुष के ) चित्र में मूल स्थानीय आचाराङ्ग और सूत्रकृताङ्ग को माना है। उसी पुस्तक के पृ. १४ तथा ४९ के सामने वाले चित्र में मूल स्थानीय चार सूत्र आवश्यक, दशर्वकालिक, पिण्डनिर्युक्ति और उत्तराध्ययन को माना है तथा नन्दी और अनुयोगद्वार को व्याख्या ग्रन्थों या चूलिका सूत्रों के रूप में मूल से भी नीचे प्रदर्शित किया है। एक उत्तरवर्ती वर्गीकरण में आगमों का विभाजन अंग, उपांग, मूल, छेद, प्रकीर्णक और चूलिका इस प्रकार मिलता है ।" इस विभाजन में नन्दी और अनुयोगद्वार को चूलिका सूत्रों के अन्तर्गत लिया गया है। १. स. १४ । २,३; प्र० स०८८-१३४ । २. ( क ) ठा. २/१७१ । (ख) कपा. पृ. २५ । ३. नसुनं सू. ७२ । ४. नच् पृ. ५७ : पाययुगं जंघोरुगातदुगद्धं तु दो य बाहूयो । गोवा सिरं च दरिलो बोसो ॥ इतर मुलसिस जं सुतं गावभागठित अंग Jain Education International पनि मति मं पुण एलरसेव सुतपुरिसस्स परेगतिं तं अंगवाहिरति भगति अहवा मरकतमंगगतं तं हि वाहि तं च । नियतं अंगपविट्ठ, अणिपथ सुत बाहिरं भणितं ॥..... आवस्सगवतिरितं दुविहं कालियं उक्कालियं । ५. प्रच. ( श्लो. २४१ ) । ६.१ प्रस्तावना.) पृ. २७ For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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