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अणुओगदाराई
सूत्र १७४ ६. (सूत्र १७४)
आकाश एक द्रव्य है, एक इकाई है। उसमें द्रव्यार्थ और प्रदेशार्थ का विभाग विशिष्ट द्रव्य के अवगाह के आधार पर होता है। आनुपूर्वी द्रव्यों में तीन आकाश प्रदेशों का एक समुदाय, चार आकाश प्रदेशों का एक समुदाय, पांच आकाश प्रदेशों का एक समुदाय, इस प्रकार विशिष्ट पुद्गल स्कन्धों से अवगाढ जितने समुदाय बनते हैं, वे द्रव्य कहलाते हैं ।
अनानुपूर्वी द्रव्य में एक प्रदेशावगाही द्रव्य से उपलक्षित आकाश का प्रत्येक प्रदेश द्रव्य है । इस एक-एक प्रदेशात्मक द्रव्य में अन्य प्रदेश की कल्पना संभव नहीं।
अवक्तव्य द्रव्य में लोक में द्विप्रदेशावगाढ द्रव्य से उपलक्षित आकाश प्रदेश अवक्तव्य द्रव्य है ।
अवक्तव्य द्रव्य-द्विप्रदेशी स्कन्ध सबसे अल्प हैं । अनानुपूर्वी द्रव्य एक परमाणु रूप है इसलिए उसे अवक्तव्य द्रव्य से दुगुना होना चाहिए फिर विशेषाधिक का उल्लेख क्यों? इसका समाधान यह है कि भिन्न-भिन्न परमाणुओं के संयोग से द्विप्रदेशी स्कन्धों का निर्माण होता रहता है । द्विप्रदेशी स्कन्ध अधिक संख्या में हो जाते हैं तो अनानुपूर्वी द्रव्य उससे दुगुने नहीं हो पाते।'
द्रव्यानुपूर्वी में प्रदेशार्थ की अपेक्षा आनुपूर्वी द्रव्य अवक्तव्य द्रव्य से अनन्तगुना बतलाए गए हैं। क्षेत्रानुपूर्वी के प्रकरण में वे असंख्येय गुण बतलाए गए हैं। आकाश (क्षेत्र) के प्रदेश असंख्येय ही होते हैं, इसलिए यहां 'असंखेज्जगुणाई' पाठ की रचना
१. अहावृ. पृ. ४९ : तत्र सम्वत्थोवाइं नेगमववहाराणं
अवत्तब्वगदवाई दवठ्ठयाए, कथं? द्विप्रदेशात्मकत्वादवक्तव्यकद्रव्याणामिति, अणाणु विदवाई दब्वट्ठयाए विसेसाधियाई, कथं ? एकप्रदेशात्मकत्वादनानुपूर्वीणां इति,
आह-यद्येवं कस्माद् द्विगुणान्येव न भवन्त्येकप्रदेशात्मकत्वात् तद्विगुणत्वभावादिति, अत्रोच्यते, तदन्यसंयोगतोऽवधीकृतावक्तव्यकबाहुल्याच्च नाधिकृतद्रव्याणि द्विगुणानि, किन्तु विशेषाधिकान्येव ।
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