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________________ दसवां प्रकरण : सूत्र ४३२-४३८ एगमेगं आगासपएसं अवहाय जावइणं काले से पहले खोने नीरए निल्लेवे निट्टिए भव से तं वायहारिए खेत्तपलिओ मे । गाहा— एएस पल्लाणं, कोटाकोटी भवेज्ज दसगुणिया । संवाहारिया वेत्तसागरोयमस्स एगस्स भवे परीमाणं ॥१॥ बावहारियवेतपलिओम सागरोपमेहि कि पवणं ? एएहि वावहारियतपलिओयम सागरोवमेहि नत्थि किचिप्पओयणं केवलं पण्णव पण्णविज्जइ । से तं वावहारिए खेत्तपलिओवमे || ४३७. एएहि तेहि वालग्गेहि अप्फुन्ना वा अणकुन्ना था, तो णं समए- समए एगमेगं आगासपएसं अवहाय यावता कालेन स पल्यः क्षीणः मीरजा: निलॅप निष्ठितः भवति । तदेत व्यावहारिक क्षेत्रोपमम् । Jain Education International गाथा एतेषां पल्यानां कोटिकोटि भवेत् दशमिता तद व्यावहारिकस्य क्षेत्रसामरोपमस्य एकस्य भवेत् परीमाणम् ॥१॥ ४३८. से किं तं सुहुमे खेत्तपलिओ मे ? सुमेवेत्तपलिओदमे से जहा सिया जोयणं नामए पत्ले आयाम - विक्खंभेणं, जोयणं उड़ढं उच्चत्तेणं, तं तिगुणं सविसेसं परिक्लेवेणं; से णं पहलेगाहा एगाहिय - बेयाहिय तेयाहिय, उक्कोसेणं सत्तरतपाणं । सम्मट्ठे सन्निचिते, भरिए बालग्गकोटीगं ॥। १॥ तस्य णं एयमेगे वाली असंखेज्जाई खंडाई कज्जइ, ते णं वालग्गा विडीओगाहणाओ असंभागमेला सुहुमस्स पणगजीवस्त सरीरोगाहणाओ असंखेज्जगुणा । ते णं वालग्गे नो अग्गी डहेज्जा, नो वाऊ हरेज्जा, नो फुच्छेना नोपलिविइंसेज्जा नो इताए हव्यमागच्छेग्ना । जे तत्र एकैकस्य बालाग्रस्य असंख्येयानि खण्डानि क्रियन्ते । तानि बालाप्राणि दृष्टयवनानातः असंख्येयमागमात्राणि सूक्ष्मस्य पनकजीवस्य शरीरावगाहनात असंख्येयम्नानि तानि बालाग्राणि नो अग्निः दहेत, नो वायुः हरेत्, नो कुथ्येयुः, नो परिविध्वंस्येरन्, लिन 'ह' आगन्छेयुः। ये तस्य पल्यस्य आकाशप्रदेशाः तैः गं तस्स पहलस्स आगासपएसा वाला 'अन्ना' या 'ग' एवं व्यावहारिक सागरोपमे कि प्रयोजनम् ? एवं व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपम-सागरोपमे नास्ति किञ्चिद् प्रयोजनम्, केवलं प्रज्ञापनार्थं प्रज्ञाप्यते । तदेतद् व्याबहारिकक्षेत्रपल्योपमम् । अथ किं तत् सूक्ष्मं क्षेत्रपल्योपमम् ? सूक्ष्मं क्षेत्रस्योपमम् तद् यथानाम पल्यः स्यात् -योजनम् आयाम- विष्कम्भेण, योजनम् ऊर्ध्वम् उच्चत्वेन तत् त्रिगुणं सविशेषं परिक्षेपेण, स पल्यः गाथा एकाहिक यह व्यहिकाणाम्, उत्कर्षेण सप्तरात्रप्ररूढानाम । संसृष्टः समचितः भृतः बालाग्रकोटिभिः ॥ १ ॥ वा, ततः समय-समये एकैकम् आकाशप्रदेशम् अपहर अपहृत्य कालेन स पल्यः क्षीण: नीरजाः यावता For Private & Personal Use Only २६३ समय में वह कोठा खाली, रज रहित, नि और निष्ठित [अन्तिम रूप से बानी] होता है वह व्यावहारिक क्षेत्र पत्योषम है। गाथा १. इन दस कोड़ाकोड़ पल्यों से एक व्यावहारिक क्षेत्र सागरोपम होता है । ४३७. इन व्यावहारिक क्षेत्रपल्योपमों और सागरोपमों का क्या प्रयोजन है ? इन व्यावहारिक क्षेत्रस्योपमों और सागरोपमों का कोई प्रयोजन नहीं है। केवल प्ररूपणा के लिए प्ररूपणा की जाती है । वह व्यावहारिक क्षेत्रपस्यो है। ४३८. वह सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम क्या है ? सूक्ष्म क्षेत्रपल्योपम - जैसे कोई कोठा एक योजन लम्बा, चौड़ा, ऊंचा और कुछ अधिक तिगुनी परिधि वाला है । वह पल्य गाथा - १. एक, दो, तीन दिन यावत् उत्कृष्टतः सात रात के बढ़े हुए करोड़ों बालाग्रों से ठूंसठूस कर घनीभूत कर भरा हुआ है । इन बालानों में से प्रत्येक बालाग्र के असंख्य खण्ड किए जाते हैं । वे बालाग्र दृष्टि विषय में आने वाले पुद्गलों की अवगाहना से असंख्येय भाग मात्र और सूक्ष्म पनक जीव के शरीर की अवगाहना से असंख्य गुना अधिक होते हैं। वे बालाग्र न अग्नि से जलते हैं, न हवा में उड़ते हैं, न असार होते हैं और न दुर्गन्ध को प्राप्त होते हैं। उस कोठे के जो आकाश प्रदेश उन बालानों से व्याप्त हों या अव्याप्त उनमें से प्रति समय एक-एक आकाश प्रदेश का अपहार करने पर जितने समय में वह कोठा खाली, रज रहित, निर्लेप और निष्ठित [ अन्तिम www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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