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वंदामि अज्जर क्खिअ खमणे रक्खिअचरित सव्वस्से | रयणकरंडक भूओ अणुओगो
रक्खिओ जेहि ॥
चारित्र सर्वस्व के रक्षक, क्षपण आर्यरक्षित को मैं वन्दन करता हूं जिन्होंने रत्नकरण्डकभूत अनुयोग की रक्षा की है । आवश्यक निर्युक्ति में आर्य रक्षित के सम्बन्ध में लिखा है
अणुभोगवाराई
देविंद दिएहि महाणुभावेहि रक्खिअअज्जेहि ।
जुगमासज्जवितो अणुओगो तो कओ चउहा ||७७४ ||
इस उल्लेख से स्पष्ट है कि आर्यरक्षित ने आगमों को चार अनुयोगों में विभक्त किया था। जिनभद्रगणी क्षमाश्रमण ने नितिकार के लेख का विस्तार से वर्णन किया है।
आरक्षित ने अपने शिष्य दुवैलिका पुष्यमित्र की ओर ध्यान दिया। उन्हें प्रतीत हुआ कि यह श्रुतामंत्र का बड़ी कठिनाई के साथ अवगाहन कर रहा है। यह मननशक्ति, पाठशक्ति और धारणाशक्ति - तीनों से सम्पन्न है फिर भी इसे श्रुतज्ञान के संरक्षण में कठिनाई हो रही है तो मति, मेधा और धारणा शक्ति से हीन मुनि श्रुतार्णव का अवगाहन कैसे कर सकते हैं। इस चिन्तन के साथ उन्होंने श्रुत को चार भागों में विभक्त कर दिया । "
अनुयोग को चार भागों में विभक्त करने के पश्चात् अनुयोग के विषय में व्यापक जानकारी देना आवश्यक था। इस आवश्यकता की पूर्ति के लिए आर्यरक्षित ने अनुयोगद्वार सूत्र की रचना की, यह अनुमान किया जा सकता है। अनुश्रुति और परम्परा से भी अनुयोगद्वार के कर्त्ता के रूप में आर्यरक्षित का नाम विश्रुत है। किसी अन्य का नाम कर्त्ता के रूप में उपलब्ध नहीं है । इस बाधक प्रमाण के अभाव में भी आर्यरक्षित के कर्तृत्व की पुष्टि होती है ।
जीवनवृत्त -
दशपुर नगर (मन्दसोर) में सोमदेव नामक ब्राह्मण रहता था। उसकी पत्नी का नाम रुद्रसोमा था। उसके दो पुत्र थे । एक का नाम था आर्यरक्षित और दूसरे का फल्गुरक्षित । उपनयन संस्कार के बाद आर्यरक्षित ने अपने पिता के पास अध्ययन किया । विशेष उपलब्धि के लिए वे पाटलीपुत्र गए। वहां चार वेद, मीमांसा, न्याय, पुराण और धर्मशास्त्र का अध्ययन किया। अध्ययन पूरा कर जब वे दशपुर आए तब राजा ने हाथी पर चढ़ाकर ग्राम में प्रवेश कराया । अन्य लोगों ने भी उसे अनेक प्रकार के उपहार दिए ।
आर्यरक्षित सब ग्रामवासियों का सम्मान और आशीर्वाद पाकर अपनी माता के पास आए। उनकी माता रुद्रसोमा जैन थी, अतः वह जैन धर्म के संस्कारों से अनुप्राणित थी। उसने उदासीन भाव से पुत्र का स्वागत किया। पुत्र ने कारण पूछा तो वह बोली - तुमने आत्मविद्या से शून्य शास्त्रों का अध्ययन किया है, इसे देखकर मैं प्रसन्न कैसे हो सकती हूं ? यदि तुम्हारा मुझ पर विश्वास है तो तुम आत्मविद्या प्रधान और नयप्रधान दृष्टिवाद का अध्ययन करो ।
आर्यरक्षित ने पूछा किसके पास पढ़ें ? माता ने कहा- दृष्टिवाद पढना है तो पहले श्रमणोपासक बनो, क्योंकि दृष्टिवाद के ज्ञाता आचार्य श्रमण हैं। आर्यरक्षित नैयायिक से श्रमणोपासक बनने के लिए तैयार हो गए तब माता ने कहा- हमारे इक्षुवाट में आचार्य तोसलि ठहरे हुए हैं। वे तुम्हें दृष्टिवाद पढाएंगे। रातभर आर्यरक्षित को नींद नहीं आई । प्रातःकाल होते ही वे माता की आज्ञा लेकर अपने प्रज्ञाबल से दृष्टिवाद समुद्र का पान करने चले ।
आरक्षित घर से चले तो मार्ग में उनके पिता के मित्र उपहार के लिए नौ इक्षुदण्ड और एक उसका खण्ड लेकर आ रहे थे। आर्यरक्षित बोले- मैं अभी बाह्यभूमि जाता हूं। आप अपना यह उपहार माताजी को दे देना और कहना कि मैंने उसे इस स्थिति में देखा है । उन्होंने यह बात कही तो माता ने सोचा-पुत्र को शकुन अच्छा हुआ है । यह नौ पूर्व और दशवें पूर्व का कुछ अंश पढ़ेगा। आर्यरक्षित ने भी शकुन का फल यही सोचा ।
आर्यरक्षित आचार्य तोसलि के पास पहुंचे और वन्दना की । आचार्य ने नाम और आने का प्रयोजन पूछा तो वे बोले- मैं श्रमणोपासक हूं और दृष्टिवाद पढ़ने के लिए आपके पास आया हूं। आचार्य ने कहा- तुम साधु बन जाओ तो दृष्टिवाद के साथ क्रम से और भी ज्ञान मिलेगा । आचार्य की प्रेरणा पाकर वे दीक्षित हो गए। आचार्य ने उनको ग्यारह अंग पढाकर बारहवां अंग दृष्टिवाद जितना ज्ञात था उतना पढ़ा दिया ।
आर्यरक्षित ने सुना वज्रस्वामी के पास दृष्टिवाद अधिक स्पष्ट है । वे उस समय महापुरी नगरी में थे अतः आर्यरक्षित ने वहां के लिए प्रस्थान कर दिया। वहां से चलते हुए वे उज्जयिनी पहुंचे। उज्जयिनी में उस समय आचार्य भद्रगुप्त थे। वे उनके १. विमा २२६२-२२९३ ।
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