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________________ अणुओगदाराई ७२ ४. नय व्याख्या का चौथा द्वार है-नय । नय का अथ है--अनन्त धर्मात्मक वस्तु के एक धर्म का बोध ।' अनुगम के द्वारा प्रतिपाद्य विषय का अर्थबोध होने पर नय के द्वारा उसके विभिन्न पर्यायों का अर्थबोध किया जाता है। विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य है विशेषावश्यक भाष्य ।' सूत्र ७६-९९ ३. (सूत्र ७६-६६) प्रस्तुत प्रकरण में उपक्रम के छ: निक्षेपों का निर्देश है। जैसे बीज की बुवाई के लिए खेत को तैयार किया जाता है, जैसे काल बोध के लिए नालिका से रेत अथवा जल को नीचे डाला जाता है, जैसे वस्तु का परिकर्म और विनाश किया जाता है, जैसे भावभंगिमा के द्वारा अमात्य और गुरु का अभिप्राय जाना जाता है वैसे ही जिस विषय का अध्ययन करना है उसके नाम, स्थापना, -क्षेत्र (किस क्षेत्र में ग्रंथ रचा गया), काल (ग्रंथ कब रचा गया), द्रव्य (किस विषय का मण्डन और खण्डन किया गया) अथवा अमुक ग्रंथ किस विशेष गुण या पर्याय का प्रतिपादन कर रहा है ? उपक्रम अथवा उपोद्घात के द्वारा इन सब विषयों का ज्ञान विद्यार्थी को होता है इसलिए अध्ययन का पहला सूत्र है - उपक्रम । क्षमाश्रमण जिनभद्र ने द्रव्य, क्षेत्र, काल आदि को गुरु के चित्त की प्रसन्नता का उपक्रम बतलाया है।' शब्द विमर्श सूत्र ८७ परिकर्म परिकर्म का अर्थ है-वस्तु में गुण विशेष का निर्माण करना, उसे सजाना या संवारना। घी, तेल आदि विशिष्ट पदार्थों के उपयोग से नटों, नर्तकों के शरीर को पुष्ट और कान्तियुक्त बनाया जाता है। पशुओं को प्रशिक्षित करना, उन्हें आभूषण आदि के द्वारा सजाना भी परिकर्म है । इस प्रकार सजीव या निर्जीव किसी भी वस्तु में गुण विशेष की वृद्धि करना परिकर्म कहलाता है। वस्तु-विनाश वस्तु को सम्पूर्ण रूप में या आंशिक रूप में विनष्ट कर देना वस्तु विनाश उपक्रम है। परिकर्म और विनाश दोनों उपक्रमों में वस्तु के पूर्व रूप का नाश होता है, और नया रूप सामने आता है। इस दृष्टि से ये दोनों एक हैं किन्तु परिकर्म में रूपान्तरण होने के बाद भी यह वस्तु वही है, ऐसी पहचान होती है। वस्तु विनाश में यह प्रतीति नहीं होती है । इसलिए यह उससे भिन्न है। सूत्र ८८ तूणवादक तम्बूरा-वादक कुछ व्याख्याकार तूणइल्ल, तुम्बा और वीणिय इन तीन शब्दों की व्याख्या करते हैं। कल्पसूत्र के टिप्पणकार ने तूणइल्ल १. (क) अचू. पृ. १९ : तस्स वा बत्थुणो पज्जायसंभवेण बहुधा नयनं नतो भण्णति । (ख) अहावृ. पृ. २७ : नयनं नय: नीयतेऽनेनास्मिन्नस्मा दिति वा नयः, अनन्तधर्मात्मकस्य वस्तुन एकांश परिच्छेद इत्यर्थः। (ग) अमवृ. प. ४० : नयः सर्वत्रानन्तधर्माध्यासिते वस्तु न्येकांशग्राहको बोध:। । २. अहाव.पृ. २७ : संबद्धमुपक्रमत: समीपमानीय रचितनिक्षेपम् । अनुगम्यतेऽथ शास्त्रं नयरनेकप्रभेदैस्तु ॥ ३. विमा. ९११ से १२८ । ४. विभा. ९२९ से ९३९ । ५. (क) अहाव. पृ. २७ : परिकर्म--द्रव्यस्य गुणविशेषपरि ___णामकरणं । (ख) अमवृ. प.४१ : वस्तुनो गुणविशेषाधानं परिकर्म । ६. (क) अहाव. पृ. २८ : तथावस्तुविनाशे च पुरुषादीनां खड्गादिभिविनाश एव उपक्रम्यते। (ख) अमवृ. प.४१: यदा तु वस्तुनो विनाश एवोपाय विशेषरुपक्रम्यते तदा वस्तुनाशविषयो द्रव्योपक्रमः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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