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________________ १६५ आठवां प्रकरण : सूत्र ३१३-३१६ ३१६. हासरसलक्खणं रूव-वय-वेसभासाविवरीयविलंबणासमुप्पन्नो। हासो मणप्पहासो, पगालिगो रसो होइ ।।१।। हास्यरसलक्षणम् - रूप-वयो-वेषभाषाविपरीतविडम्बनासमुत्पन्नः । हास्यः मनःप्रहासः, प्रकाशलिङ्गः रसः भवति ॥१॥ ३१६. हास्य रस के लक्षण १. रूप, वय, वेष और भाषा के विपर्यय की विडम्बना [प्रयोग] से मन को आह्लादित करने वाला हास्य रस उत्पन्न होता है। प्रकाश [मुख, नेत्र आदि का विकास उसका लक्षण है। हास्य रस, जैसे२. स्तनों के भार के कंपन से झुकी हुई कटि प्रदेश वाली श्यामा स्त्री अपने सुप्त देवर को मसिमण्डित करती है और जब वह जागता है तब 'ही-ही' शब्दोच्चारण पूर्वक हंसती है। ३१७. करुण रस के लक्षण - १. प्रिय के विप्रयोग, बंध, वध, व्याधि, विनिपात [पुत्र आदि की मृत्यु और संभ्रम से करुण रस उत्पन्न होता है । ___ शोक, विलाप, म्लानता और रोदन उसके लक्षण हैं। करुण रस, जैसे२. हे पुत्रि ! उसके वियोग में दुश्चिन्ता से क्लान्त और आंसुओं से भरी हुई आंखों वाला तुम्हारा मुख दुर्बल हो गया है। हासो रसो जहा हास्यः रस: यथापासुत्त-मसीमंडिय-पडिबुद्धं प्रसुप्त-मषीमण्डित-प्रतिबुद्धं देयरं पलोयंती। देवरं प्रलोकयन्ती । ही! जह थण-भर-कंपण ही! यथा स्तन-भर-कम्पनपणमियमझा हसइ सामा ।।२।। प्रणमितमध्या हसति श्यामा ॥२॥ ३१७. करुणरसलक्खणं करुणरसलक्षणम्पियविप्पओग-बंध-वह-वाहि- प्रियविप्रयोग-बन्ध-वध-व्याधिविणिवाय-संभमुप्पन्नो । विनिपात-सम्भ्रमोत्पन्नः । सोइय-विलविय-पव्वाय शोचित-विलपित-म्लानरुग्णालगो रसो करुणो ॥१॥ रुदितलिङ्गः रसः करुणः ॥१॥ करुणो रसो जहा करुणः रसः यथा - पज्झाय-किलामिययं, प्रध्यात-क्लान्तकं, बाहागयपप्पुयच्छियं बहुसो। वाष्पागतप्रप्लुताक्षिकं बहुशः । तस्स विओगे पुत्तिय ! तस्य वियोगे पुत्रिके ! दुब्बलयं ते मुहं जायं ।।२।। दुर्बलकं ते मुखं जातम् ॥२॥ ३१८. पसंतरसलक्खणं प्रशान्तरसलक्षणमनिद्दोसमण-समाहाणसंभयो निर्दोषमनः-समाधानसम्भवः जो पसंतभावेणं । व: प्रशान्तभावेन । अविकारलक्खणो सो, अविकारलक्षण: स, रसो पसंतो त्ति नायव्वो ॥१॥ रसः प्रशान्तः इति ज्ञातव्यः ॥१॥ पसंतो रसो जहा प्रशान्त: रस: यथासम्भाव-निविगारं, सद्भाव-निर्विकारं, उवसंत-पसंत-सोमदिट्टीयं । उपशान्त-प्रशान्त-सौम्यदृष्टि: इयम् । ही! जह मुणिणो सोहइ, ही ! यथा मुनेः शोभते, मुहकमलं पोवरसिरीयं ॥२॥ मुखकमलं पोवरश्रीकम् ॥२॥ एए नव कव्वरसा, एते नव काव्यरसा:, बत्तीसदोसविहिसमुप्पन्ना। द्वात्रिंशद्दोषविधिसमुत्पन्नाः । गाहाहि मुणेयव्वा, गाथाभि: ज्ञातव्याः, हवंति सुद्धा व मोसा वा ॥३॥ भवन्ति शुद्धा वा मिश्रा वा ॥३॥ ---से तं नवनामे ।। -तदेतद् नवनाम। दसनाम-पदं दशनाम-पदम् ३१६.से कि तं दसनामे? दसनामे अथ किं तद् दशनाम ? दश- दसविहे पण्णते, तं जहा–१. नाम दशविधं प्रज्ञप्तं, तद्यथा-१. गोणे २. नोगोण्णे ३. आयाणपएणं गौणम् २. नोगौणम् ३. आदानपदेन ३१८. प्रशांत रस के लक्षण - १. स्वस्थ मन की समाधि [एकाग्रता] और प्रशान्त भाव से शांत रस उत्पन्न होता अविकार उसका लक्षण है। प्रशांत रस, जैसे२. स्वभाव से निर्विकार, प्रशांत, सौम्यदृष्टियुक्त और पुष्ट कान्ति वाला मुनि का मुखकमल सुशोभित हो रहा है। ३. बत्तीस दोष-विधियों से समुत्पन्न ये नौ काव्य रस उक्त गाथाओं से जानने चाहिए। ये रस किसी काव्य में शुद्ध और किसी में मिश्र [अनेक रसों के मिश्रण वाले होते हैं। वह नव नाम है। दस नाम-पद ३१९. बह दस नाम क्या है ? दस नाम के दस प्रकार प्रज्ञप्त हैं, जैसे१. गौण नाम, २. नोगौण नाम ३. आदान Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only wate & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003627
Book TitleAgam 32 Chulika 02 Anuyogdwar Sutra Anuogdaraim Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Mahapragna Acharya
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1996
Total Pages470
LanguagePrakrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_anuyogdwar
File Size24 MB
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