Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टोका अर्यममाधिस्थाननिम्पणम्
६५.
चशङ्काका
विचिकित्सा वा समुत्पद्येत, भेदाभेत, उन्माद माप्नुयात् दीया रोगातक भवेत् केवलाद्वार्माद् भ्रमत । तम्मात् नो निर्ग्रन्थः शररूपसगन्धस्पर्शानुपाती भवेत । दशम ब्रह्मचर्यमापन भाति ||१३||
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टोम - 'नो मद्दम्बरम' इत्यादि ।
य. साधु गदरूपरसगन्यस्पर्शानुपाती गन्द= स्त्र्यादीना मन्मनभापितादिरूप, स्प=श्रीसम्पस्टिनादिक चित्रगत बीम्पा, रम =मधुरादिक., गन्धकोष्ठपुटादिगन्ध, स्पर्श = कोमलस्पर्श, एतान अनुपतितुम् = अनुगन्तु शीलमम्येति न भवति स निर्ग्रन्थो भरति । यो मनोज्ञादिषु समासक्तो न भवति, न निर्ग्रन्य इति भाव । शेष व्याग्यातप्रायम् । उपसहरन्नाह 'दस मे' इत्यादि- दशममयापूरण ब्रह्मचर्य समाधिस्थान भवति । प्रत्येकसमापिस्थानस्य तुल्यत्वग्यापनादिमुक्तम् ||१३||
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दशमा ममानिस्थान इस प्रकार है'नो महत्व०' इत्यादि ।
अन्वयार्थ - जो माधु ( महत्व रम गय फामाणुवाई नो हवशब्द रूप रम गए स्पर्शानुपाती नो भवति ) स्त्रियों के मन्मनभाषित आदि शब्दों में, उनके कटाक्ष आदि कों में, अथवा चित्रगन स्त्री के रूप में, मधुरादिक रमों में, को पुादिगध में, कोमल स्पर्श में अनुपात -समासक्त नहीं होना है (से निग्गथे- स निर्ग्रन्थ ) वह निग्रथ माधु है । इस सूत्र में जाये हुए शेष पदों का अर्थ प्रथम सूत्र में न्यायात हो चुका है । उसी के अनुसार यहा पर भी लगालेना चाहिये । अन्त में जो (दसमे भचेरसमादिद्वाणे हव- दशम ब्रह्मचर्यममाधिस्थान भवति) ऐसा कहा है वह प्रत्येक समाजिस्थान में तुल्यबलता
દરામ બ્રહ્મચ સમાધિસ્થાન આ प्रभा - "नो सन्ख्व" त्यादि । अन्वयार्थ —> साधु सदव रस गध फामाणुवाई नो हव - शब्दरूप - रस-गय- स्पर्शानुपाति नो भवति श्रीगोना भन्भनलाषित आहि राहोभा તેના કટાક્ષ આ િકામા, અથવા ચિત્રગત સ્ત્રીના રૂપમા મધુરિક મેમા ફા પુટાદિ गधभा, કામલપ મા भाभत थता नथी से निम्गयेस निग्रंथ, ते निथ साधु छे मा सूत्रभा भावेसा शेष होना सर्थनी प्रथम નૂત્રમા વ્યાખ્યા કરવામા આવી ગયેલ છે તેના અનુસાર અહીંયા પણ સમજી बेवु लेोमन्तमा ने दममे नभचेर समाहिलाणे दवड- दशम ब्रह्मचर्यसमाि स्थान भवति येवु व्हेल है ते प्रत्ये समाधिभ्धानमा तुस्य जयगु પ્રદર્શિત
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