Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
उत्तगध्ययनसूत्र मूलम्-सम चं सर्थव थीहि, सकह च अभिवण ।
वभचेरेरओ भिव, णिच्चसो परिवजए॥३॥ छाया-सम च सस्ता लोभिः. सस्था च अभीक्ष्णम् ।
ब्रह्मचर्यरतो भिनु , नित्यश. परिवर्जयेत् ॥३॥ टीका-'सम च' इत्यादि।
च-पुन ब्रह्मचर्यरतो भिक्ष स्वीमि सम-सह सस्तर-परिचयम् , एका. सनोपवेशन, तथा-यन स्त्रीपूर्वमुपरिष्टा, तर स्थाने घटिकाहयाभ्यन्तरे उपवेशन चेत्यर्थः, तथा-ताभि सह सस्थाबार्तालापम् , च अभीक्ष्ण-सर्वथा नित्यश सतत, परिवर्जयेत् ॥३॥
॥ इति तृतीयस्थानम् ॥ विपयासक्तिवाईक ऐसी (थीकह-स्त्री कथाम्) स्त्री पशु पडक आदि की कथा (विवजा-विवजेयत) सर्वथा परित्याग करे।
॥ यह दितीय-समाधिस्थान हैं ॥२॥ 'सम च' इत्यादि_ अन्वयार्थ (धभचेररओ मिस्त्र-ब्रह्मचर्यरत' भिक्षु) व्रत्मचर्य की सम्यक प्रकार से परिपालना करने में लवलीन बना हुआ निर्ग्रन्थ साधु (बीहि सम-स्त्रीभि. समम् ) स्त्रियों के साथ के (सयव-मस्तवम्) परिचयका तथा उनके साथ एक आमन पर बैठने का एव जहा पर स्त्री वैटी हो उस स्थान पर दो घडी के पहिले बैठने का तथा (सकहसकयाम् ) उनके साथ रागपूर्वक बातचीत करने का (अभिवग्वणअभीक्ष्णम्) सर्वया (णिच्च सो-नित्यशः) नित्य (परिवजरा-परिवर्जयेत् ) परित्याग करे। यह तृतीय ममाधि स्थान है ॥ ३॥ शतिन पधारना२ वी थोह-त्राकथा स्त्री, ५४, ५७४ महिनी याना विवाए -विवर्जयेत् सर्वथा ५२त्या ४२ मा भी समाधिस्थान छ ॥२॥ "सम च" छत्यादि।
त्ययाय--वभचेररओ भिक्खु-ब्रह्मचर्यरत भिक्षु प्रयय नी सभ्य प्रसारण परिपालना ४२वामा सवीन सनेह य थीहि सम-मीभि समम् साधु सीमानी माथेना सथव-सस्तवम पस्यियना तथा तना साथे मे मासन ઉપર બેસવાને તેમજ જે સ્થળે ત્રીજને બેસી ચુકેલ હોય એ સ્થાન ઉપર બે ઘડી ५डेसा प्रेसवानो त सकह-सस्थाम् तेनी साथे शाई वातयित पानी अभिक्षण-अभिक्षणम् सपथा णिचसो-नित्यश सतत परिवज्जए-परिवर्जयेत પરિત્યાગ કરે આ ત્રીજુ સમાધીસ્થાન છે | ૩