Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका अ .६ दशविधतह्मचर्यसमाधिस्थाननिम्पणम् ८३ पणैरम्य ब्रह्मचर्य धर्मभ्य मप्रमाणता प्रतिपादिता । अन्य निकालगोचरफलमाहअनेन ब्रह्मचर्यमणधर्मण पुरा अनन्तासु उत्सरियरमपिणीमु सिद्धा अभूपन, सम्प्रति महानिदेहेपु मि यन्ति च । तया-अपरे अनागतायामनन्ताद्धाया सेत्स्यन्ति=सिद्धा भविष्यन्ति । 'प्रति ब्रवीमि' इत्यम्यार्य पूर्वपद् पोय ॥१७॥ इतिश्री-विश्वविग्यात-जगहल्लम-प्रमिद्धवाचम्पञ्चदशभापालितललित सापालापक-प्रविशुद्धगद्यपद्यने ग्रन्थनिर्मापर-वादिमानमर्दक-शाहअपति-कोल्हापुर-राजमदत्त- जैनशास्त्राचार्य' पदभृषित-कोल्हा पुररान र-
माह्मचारि-जैनाचार्य-जैनधर्मदिवार-पूज्य री पासीलारतिविरचितायामुत्तरा ययनमूत्रस्य प्रियदर्शिन्या
टीमराया ब्रह्मचर्यममाधिनामक पोडशम ययन सपूर्णम् । -नित्य) द्रव्यार्थिक नय की अपेक्षा अप्रन्युत अनुत्पन्न एव स्थिर एक स्वभाववाला है और (माम-शाश्वतः) पर्यायार्थिकनयकी अपेक्षा से शावत्-निरतर अन्य अन्य रूपों द्वारा उत्पन्न होने की वजह से शाश्वत है। अथवा त्रिकाल में भी अविन वर होने से नित्य, तथा त्रिकाल मे फलदायक होने से शाश्वत है। इन ध्रुवादि विठोपणों द्वारा सूत्रकार ने इम ब्रह्मचर्यजन में प्रमाणना प्रतिपादित की है । त्रिकाल मे इसका क्या फल होता है, इस विपय को मृत्रकार बतलाते है (अणेण-अनेन) इम ब्रह्मचर्यरूप धर्म से (पुरा) अनत उत्मर्पिणी अवसर्पिणी कालो मे (मिद्धा) सिद्ध हुए है (मिज्मनि-सिध्यन्ति) महाविदेहोंमे अभि भी मिद्ध होंगे। (त्तिवेमि-इति ब्रवीमि) ऐसा व्याख्यान मैंने हे जम्ब ।
श्री महावीर प्रभु के मुग्यसे सुना है सो तुमसे भी ऐसा ही कहा है॥१७॥ इस प्रकार यह सोलहवा अध्ययन का हिन्दी अनुवाद सपूर्ण हुआ॥१३॥ अप्रयुत अनुत्पन्न भने स्थीर ४ स्वभावामा छ भने सासए-शाश्वत: પર્યાયાથિક નયની અપેક્ષાથી શાશ્વત-નિર તર અન્ય અન્ય રૂપ દારા ઉત્પન્ન હોવાને કારણે શાશ્વત છે અથવા ત્રિકાળમાં પણ અવિનશ્વર હોવાથી નિત્ય, તથા ત્રિકાળમાં ફળદાયક હોવાથી શાશ્વત છે આ વદિ વિશેષણે દ્વારા સૂત્રકારે આ બ્રહ્મચર્ય વ્રતમાં પ્રમાણુતા પ્રતિપાદિત કરવામા આવેલ છે ત્રિકાળમાં આનુ શુ ફળ મળે छ . विषयने सूत्र४२ मताव अणेण-अनेन मा प्रायय३५ धमथी पुरा सनत उत्सपिशी असावी जामा सिद्धा-सिद्धा. सिद्ध थय छ सिज्झति-सि-यन्ति મહાવિદેહમાં આજે પણ સિદ્ધ થાય છે અને અનાગત અન તકાળમાં પણ સિદ્ધ થશે એવું વ્યાખ્યાન હે જમ્મુ ! મે શ્રી મહાવીર પ્રભુના મુખથી સાભળેલ છે त्तिमि-इति ब्रवीमि से प्रभारी १ तमान ४उस छे ॥१७॥ આ પ્રમાણે શ્રી ઉત્તરાધ્યનસૂત્રને સેળમાં અધ્યનને ગુજરાતી ભાષા અનુવાદ સ પૂર્ણ