Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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मियदर्शिनी टीका 4.७ पापश्रमणम्यम्पम् रित्रोपचारात्मक च ग्राहितः गिषितम्तानेव नाचार्यादीन् यो वाला अनानी सिति-निन्दति, स पापश्रमण इत्युच्यते ॥१॥
उत्य नानाचारप्रमादिनमुक्त्या सम्मति दर्शनाचारप्रमादिनमाहेमूलम्-'आयरियउवझायाण, सम्म ने पडितप्पए ।
अप्पडिपूयए थडे , पावसंमणे-त्ति बुचड ॥५॥ डाया-आचार्योपा यायाना, सम्यङ् न परिहप्यति ।
अपतिपूजा स्तब्ध , पापत्रमण इत्युच्यते ॥५॥ टीका--'आयरिय' इत्यादि ।
र साधु जाचार्योपा यायानाम् आचार्योपा यायगुर्वादीन मन्यक-शाखो. तरीत्या न परितप्यतिधरितर्पयति सेवाशुश्रूपादिभिर्न प्रसादयति । तथाअप्रतिपूजक केनचिनिनोपतोऽपि न प्रत्युपकारक , तथा-स्तव्य अहारी, स पपश्रमण इत्युच्यते ||५|| को पालन करने की शिक्षा देते हैं तो (वाले-बाल') यह बाल भ्रमण (ते चेव बिमा-तानेव विसति) उन पर भी नष्ट होता है, उनकी भी निंदा करने लगता है यह पापश्रमण है ॥ ८ ॥
इस प्रकार ज्ञानाचार मे प्रमादी का स्वरूप कह कर अर सूत्रकार दर्शनाचार के प्रमादी का स्वरूप कहते है
"आयरिय०' इत्यादि ।
अन्वयार्थ-जो साधु (आयरिय उवज्मायाण सम्म न पडितप्पटआचार्योपाध्यायाना मन्यत्र न परितृप्यनि) आचार्य उपाध्याय आदि गुम्जनोंको शास्त्रोक्त पद्धति के अनुसार सेवा शुरूपा आदि द्वारा प्रसन्न नहीं करता है तथा (अप्पडिपृयश-अप्रतिप्रजक ) अपने ऊपर उपकार करने वाले मुनिजनोका भी जो प्रत्युपकार नहीं करता है एव छ क्यारे पाले-पालः मे १९ ते चेव खिसह-ताने सति समना ८५२ રૂ થાય છે, એમની પણ નિ દા કરવા લાગે , તે પાપભ્રમણ છે મારું
આ પ્રમાણે જ્ઞાન આચારમા પ્રમાદીનું સ્વરૂપ કહીને હવે મૃત્રકાર દર્શનાચારના प्रमादीनु २१३५ ४९ -"आयरिय" त्यादि।
मन्वयार्थ- माधु आयरिय उबनायाण सम्म न पडितप्पद-आचार्यो पा यायाना सम्यक न परितप्यति मायाय याय मा शुरुनानी शात्रोत पद्धतिना अनुसार सेवा शुश्रपा ४शन तेमन प्रसन्न - ता नथी, तथा अप्पडि