Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
View full book text
________________
प्रियदर्शिनी टीका १२ मृगाचरितवर्णनम्
एक पण्णा नाना दुरकरता परीवहसहनदुष्करता चाभिधाय स्नवक्त उपमुपहर्तुमाह
मूत्रम् -- सुहो इओ तुम पुती, सुकुमालो सुमजिओ । नहुँस पहुं तुम पुत्ता, सामण्णमणुपालिउ ॥३४॥ छाया - सुखचितम् पुत्र !, मुकुमारः सुमन्नितः । समिपुत्र', श्रामण्यमनुपालयितुम् ||३४|| टीम--'सुगे इजो' इत्यादि ।
>
हे पुत्रोत - मुस=सात तम्य उचितो=योग्योऽसि, सुकुमार सुकोमल, सुमति' = गुम्नपित उपगत्वात् सकलनेपथ्यभूषितञ्चासि । अतो हे पुन ! श्रामण्य= पूर्वोक्तगुणरूप चारिमनुपालयत मधु समर्थो न भवसि अपने केशो का लोच भी करना पडता है । ब्रह्मचर्यप्रत की आराधना रनी पडती है । वेश । ये सब वृत्तिया तुम से आचरित जन्मभर नहीं हो सकती है। क्योंकि ये सब बडी दाम्ण है । अतः पर पर ही रहो ॥३३॥ छतोंकी तथा परीप सहन करने की करता को दिखलाकर उपसरार करते हुए मृगापुत्र के मातापिता अपना कर्तव्य कहते ह 'ओ' इत्यादि ।
अन्वयार्थ - (पुत्ता- हे पुन ) हे पुत्र । (तुम सुहोओ-त्व सुखो चित) तुम तो सुख भोगने के लायक हो । कारण कि ( सुकुमालोसुकुमार.) तुम सुकुमार हो । ( सुमजिणो-मुमज्जित ) तुमसे मैने अच्छी तरह से स्नान, गध, लेपन एवं आभ्रपण आदि से मुमस्कृत + पाला पोसा है । (पुत्ता तुम सामण्णमणुपालिउ पहु न हुलिપશુ કરતા નથી આ અવસ્થામા માધુએ પાતાના વાળના લેાચ કરે છે, છાય સતની આરાધના કરવી પડે છે. એટા ! આ કાળી વૃત્તિએ તારાથી જન્મભર આચરી શકાશે નહી. કારણ કે, તે જીમ જ કાણુ છે, માટે વેર જ રહે! ॥ ૩૩ 1
છએ નતાને તથા પરીષહું સહુન કરવાની દુષ્કરતા ખતાવીને ઉપસ હાર કરતા भृगायुनना भानाचिता पोताना अभिप्रायने हे छे – "मुहारओ" इत्यादि
मन्नयार्थी - पुणे - पुत्र हे पुत्र । तुम सुहोइओ-त्व सुखोचित तारी उमर सुभ भोगवत्राने साथ छे, छार है, तु सुकुमालो - मुकुमार सुकुमार हे तने मे सुमजिगो-सुमज्जित सारी रीते स्नान, गंध, सपन वगेरेथी तथा आभूष વગેરેથી સુસજીત કરીને પાળેલ પેપેલ पुता तुम समण्यामणुपाउि पहु न
છે
003