Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका 400 महानिर्गन्धस्वरूपनिरूपणम् महा दुपी मन विपर्यास नवयु चैपरीत्यम् उपैति-माप्नोति। एव निर्मा समुपगत म नाकतिर्यग्योनी.-नरकतिर्यग्रूपान - भवान सन्यापति। नर रुपु तिर्यसु च समुत्पद्यते इत्यर्थः । 'तु' शब्द पूरण। 'विप्परियास' इति लप्त द्वितीयान्तम् । ॥४॥
कथ चारित गिरा य नरकतिर्यग्गतिः मापनातीत्याह--
उद्देसिय कीयगड निआग नं मुचई किंचि अणेसेंणिज्ज । अंग्गी विवा सव्वभरखीभवित्ती, ईओ चुंओ गच्छंड के पाँव ॥४७॥ छाया--औगिक क्रीतमृत नियाग, न मुञ्चति मिचिदने पणीयम् ।
अग्निरित्र सर्वभक्षी भूत्वा, इतथ्युतो गति कृत्वा पापम् ॥४७॥ पना करके (मया दुही-सहा दुःखी) सदा दुली होता हुआ (विप्परियासुवेड-विपर्यामम उपैति) तत्त्वों के विषय में बियरीत माव को प्राप्त होता है। इस प्रकार विपरीत भाव से वह (नरगतिरिक्वजोणी -नारा तिर्यम्योनि.) नरक ए तिर्यश्वरूप भवों को (सधावह-स-पावति) प्राप्त करता है।
भावार्थ-द्रव्यलिङ्गी माधु तत्त्वतः शीलवर्जित होने के कारण असयमी ही माना गया है। यह चारित्र की विरावना इसलिये करता है कि इसके प्रलमिथ्यात्व का उदय है। और इसीसे यह दुखी होता रहता है। मिथ्यात्व का ही यह प्रभाव है जो इसके हृदय मे तत्तर्ग के पति यार्थ श्रद्धान नहीं हो सकता है। नरक तियश्चगति में उत्पन्न होने के लिये इसको यही मिथ्यात्व प्रधान कारण बनता है ॥४॥ सया दुही-सदा दुखी महा मागपता anqat विपरियासुवेद-विपर्यासम् ફત તના વિષયમાં વિપરીત ભાવને પ્રાપ્ત કરનાર બને છે આ પ્રકારના विपरीत माथी त नरगतिरिक्सजोणी-नरकतिर्यग्योति न मने तिय३५ भवान सघावइ-सन्धावति त ४२ छ
ભાવાર્થ-દ્રવ્યલિ ગી સાધુ તવત શીલવત હોવાના કા ણે અસ યમી માન વામાં આવેલ છે તે ચારિત્રની વિરાધના એ માટે કરે છે કે, મને પ્રબળ મિથ્યા ત્વનો ઉદય હોય છે અને તેનાથી એ દુખિત થતા રહે છે મિથ્યાત્વને જ એ પ્રભાવ છે જે તેના હદયમાં તન તરફ યથાર્થ શ્રદ્ધા રાખી શકતા નથી નરક તીય ચ, ગતિમા ઉત્પન થવા માટે એમને આ માવજ પ્રધ'નું કારણ બને છે ૪૬