Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 03
Author(s): Ghasilal Maharaj
Publisher: A B Shwetambar Sthanakwasi Jain Shastroddhar Samiti
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प्रियदर्शिनी टीका २३ श्रीपार्श्वनायचरितनिरूपणम् डाया-महोदकवेगेन, वाद्यमानाना माणिनाम् ।
शरण गति प्रतिष्ठा च, द्वीप क मन्यसे मुने ॥६॥ टीका-'महाउदगवेगेण' इत्यादि। हेमुने । महोद करेगेन महन् उदक यत्र तत् महोदक-महास्रोतो महाप्रवाह इति यावद, तस्य वेगेन जायमानाना-नीयमानाना माणिनागरण-रक्षणक्षम, गतिम् = आधारभूतम् , मतिष्ठा च-स्थिरावस्थान हेतु द्वीप-निरुपद्रप्रस्थान क मन्यसे ॥६५॥
गौतमः माहमूलम्--अस्थि एगो मोंदीवो, वारिमंझे महालओ।
महाउँदगवेगस्स, गैई तत्थं न विजड ॥६६॥ छाया--अस्ति एको महाद्वीपो, वारिमध्ये महालय ।
महोदकवेगम्य, गतिस्तत्र न विद्यते ॥६६॥ टीका--'अल्यि' इत्यादि ।
हे भदन्त ! वारिमाये-जलमध्ये महालय -महान् उच्चस्त्वेन विस्तीर्णत्वेन च विशाल आलय स्थान यत्र स तथा, एरो महाद्वीपोऽस्ति । तत्र-महाद्वीप
केशीमग पूछते है-- महा उदगवेगेण' इत्यादि ।
अन्वयार्य-(मुणी-मुने) हे मुने । 'महा उदगवेगे-महा उदावेगेन) महामवाह के वेग से (घुज्झमाणाण पाणिण-वाहामानाना प्राणिनाम) यहाये गये इन प्राणियों का (सरण गड पट्ट य दीव क मन्नमी-शरण गति प्रतिष्ठा चद्वीप क मन्यसे) शरण एव आधारभूत तथा उनकी स्थिति का हेतुरूप द्वीप किसको मानते है ? ॥६५॥ .
इस केशीश्रमण के प्रश्न को सुनकर गौतमने इस प्रकार कहा 'अत्थि' इत्यादि।
अन्वयार्थ-हे भदन्त ! (वारिमझे एगो महादीवो अस्थि-वारिमध्ये एको महाद्वीपो अस्ति) जल के बीच में विस्तार वाला एक महाद्वीप है । (महा
सन्क्या-मुणी-मुने मुनि। महाप्रबाहना थी ये मायुज्झमाणाण पाणिण-वाह्यमानाना प्राणिनाम् मेयायेद 41 प्राणायानु श२५ सरण गद पत्र य दीव कमन्नसी-शरण गति प्रतिष्ठा च द्वीप क मन्यसे मने माघारभूत तथा એમની સ્થિર સ્થિતિના હેત રૂપ દ્વીપ કેને માને ? પાપા
देशी श्रभघुना मा भने सामजीन गोतमे २थी यु--"अत्थि" त्या! ___ मयार्थ- महन्त वारिमझे एगो महादीवो अत्थि-बारिम ये एको महाद्वीपो अस्ति शनी पयमा विस्तारवाणे : महाद्वीप के महाउदगवेगस्स गई तत्थ न विजइ-महाउदकवेगस्य गतिस्तत्र न विद्यते त्या nanl प्रवानी